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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१६७

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अग्नि-समाधि 2 - रुक्मिन ने पूरा रुपया लाकर पयाग के हाथ पर रख दिया । दूसरी बार कहने की ज़रुरत ही न पड़ी। (२) पयाग में और चाहे कोई गुण हो या न हो, यह मानना पड़ेगा कि वह शासन के मूल सिद्धांतों से परिचित या । उसने भेट-नीति को अपना लक्ष्य बना लिया था। एक मास तक किसी प्रकार की विघ्न-बाधा न पड़ी। रक्मिन अपनी सारी चौक- ड़ियाँ भूल गई थी। बड़े तड़के उठती, कभी लकड़ियां तोड़कर, कभी चारा काटकर, कभी उपले पाथकर, बाज़ार ले जाती । वहां जो कुछ मिलता, उसका आधा तो पयाग के हत्थे चढता और आधे में घर का काम चलता । वह सौत को कोई काम न करने देतो। पड़ोसिनों से कहतो, वहन, सोत है तो क्या, है तो अभी कल की बहुरिया । टो-चार महीने भी आराम से न रहेगी, तो क्या याद करेगी। मैं तो काम करने को हूँ ही। गाँव-भर में सक्मिन के शोल स्वभाव का वखान होता था, पर सत्सगी घाघ पयाग सब कुछ समझता था और अपनी नीति की सफलता पर प्रसन्न होता था। एक दिन वह ने कहा-दीदी, अब तो घर में बैठे-बैटे जी ऊत्रता है । मुझे भी कोई काम दिला दो। रुक्मिन ने स्नेह-सिंचित स्वर मे कहा- क्या मेरे मुँह में कालिख पुतवाने पर लगी हुई है ? भीतर का काम किये जा, बाहर के लिए तो मैं हूँ ही। वह का नाम कोसल्या था, जो विगड़ कर सिलिया हो गया था। इस वक्त तो सिलिया ने कुछ जवाब न दिया। लेकिन यह लीडियो की दशा अब उसके लिए असह्य हो गई थी । वह दिन भर घर का काम करते करते मरे, कोई नहीं पृछता। रुक्मिन बाहर से चार पैसे लाती है, तो घर को मालिकिन बनी हुई है। अब सिलिया भी मजो करेगो ओर मालिकिन का घमण्ड तोड़ देगी। पयाग पैसो का यार है, यह बात उससे अम छिपी न थी। जब रुक्मिन चाग लेकर बाजार चली गई, तो उसने घर को टट्टो लगाई और गांव का रग-टग देखने के लिए निकल पड़ी। गांव में ब्राह्मण, ठाकुर, कायस्थ, बनिये सभी थे। सिलिया ने शील और संकोच का कुछ ऐसा स्वाग रचा कि सभी खियाँ उस पर मुग्ध हो गई । किमी ने चावल दिया, किसी ने दाल, किसी ने कुछ । नई बह की आवभगत कौन न करता ? पहले ही दौरे में सिलिया