पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१७

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निमन्त्रण 2 O 'दमड़ी तिवारो।' छेदी-यह तो मेरे पिता का नाम है। बेनी–मैं तो भूल गया। मोटे -भूल गये ! पण्डित के पुत्र होकर तुम एक नाम भी नहीं याद रख, सकते। बड़े दुख की बात है ! मुझे पाँचो नाम याद हैं, तुम्हें एक नाम भी याद नहीं ! सुनो, तुम्हारे पिता का नाम है पण्डित मँगरू ओझा । पण्डितजी लड़कों की परीक्षा ले ही रहे थे कि उनके परम मित्र पण्डितः चिन्तामणिजी ने द्वार पर आवाज़ दी। पण्डित मोटेराम ऐसे घबराये कि सिर-पैर की सुधि न रही। लड़कों को भगाना ही चाहते थे कि पण्डित चिन्तामणि अन्दर चले आये। दोनों सज्जनों में बचपन से ही गाढ़ी मैत्री थी। दोनो बहुधा साथ-साथ भोजन करने जाया करते थे, और यदि पण्डित मोटेराम अव्वल रहते, तो पण्डित चिन्तामणि के द्वितीय पद में कोई बाधक न हो सकता था , पर आज मोटेरामजी अपने मित्र को साथ नहीं ले जाना चाहते थे। उनको साथ ले जाना, अपने घरवालो में से किसी एक को छोड़ देना था और इतना महान् आत्मत्याग करने के लिए वे. तैयार न थे। चिन्तामणि ने यह समारोह देखा, तो प्रसन्न होकर बोले- क्यों भाइ, अकेले- हो-अकेले ! मालूम होता है, आज कहीं गहरा हाथ मारा है । मोटेराम ने मुँह लटकाकर कहा-कैसी बातें करते हो, मित्र ! ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि मुझे कोई सुअवसर मिला हो और मैंने तुम्हें सूचना न दी हो। कदाचित् कुछ समय ही बदल गया, या किसी ग्रह का फेर है। कोई झूठ को भी नहीं बुलाता। पण्डित चिन्तामणि ने अविश्वास के भाव से कहा---कोई न कोई बात तो मित्र अवश्य है, नहीं तो ये वालक क्यों जमा हैं ? मोटे०-तुम्हारी इन्हीं बातों पर मुझे क्रोध आता है। लड़कों की परीक्षा ले रहा हूँ। ब्राह्मण के बालक हैं । चार अक्षर पढ़े बिना इनको कौन पूछेगा ? चिन्तामणि को अब भी विश्वास न आया। उन्होंने सोचा-लड़को से ही इस बात का पता लग सकता है। फेकूराम सबसे छोटा था। उसी से पूछा--क्या पढ रहे हो, बेटा 2 हमें भी सुनाओ।