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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१७०

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- १६६ मानसरोवर . चक्की की आवाज कानो मे आने लगती । 'दिन निकलते ही घास लाने चली जाती और जरा देर सुस्ताकर बाजार की राह लेती। वहाँ से लौटकर भी वह बेकार न बैठती, कभी सन कातती, कभी लकड़ियाँ तोड़ती । रुक्मिन उसके प्रबंध में बराबर ऐब निका- लती और जब अवसर मिलता तो गोबर बटोरकर उपले पाथती और गांव मे बेचती। पयाग के दोनों हार्थों में लड्डू थे। स्त्रियाँ उसे अधिक-से-अधिक पैसे देने और उसके स्नेह का अधिकाश अपने अधिकार में लाने का प्रयत्न करती रहती, पर सिलिया ने कुछ ऐसी दृढता से आसन जमा लिया था कि किसी तरह हिलाये न हिलती थी। यहाँ तक कि एक दिन दोनों प्रतियोगियों में खुल्लमखुल्ला ठन गई । एक दिन सिलिया घास लेकर लौटी तो पसीने मे तर थी। फागुन का महीना था; धूप तेज़ थी, उसने सोचा, नहाकर तव बाज़ार जाऊँ । घास द्वार पर ही रखकर वह तालाब नहाने चली गई। रुक्मिन ने थोड़ी-सी घास निकालकर पडोसिन के घर में छिपा दी और गढ़ को ढीला करके बराबर कर दिया। सिलिया नहाकर लौटी तो घास कम मालूम हुई। रुक्मिन से पूछा । उसने कहा-मैं नहीं जानती । सिलिया ने गालियां देनी शुरू की-जिसने मेरी घास छुई हो, उसकी देह में कीड़े पड़ें, उसके वाप और भाई मर जाय, उसकी आँखें जायें। रुक्मिन कुछ देर तक तो जब्त किये बैठी रही, आखिर खून में उबाल आ ही गया। झल्लाकर उठी और सिलिया के दो-तीन तमाचे लगा दिये। सिलिया छाती पीट-पीटकर रोने लगी। सारा मुहल्ला जमा हो गया। सिलिया की सुबुद्धि और कार्यशीलता सभी की आँखों में खटकती थी वह सबसे अधिक घास क्यों छोलती है, सबसे ज्यादा लकड़ियां क्यों लाती है, इतने सबेरे क्यों उठती है, इतने पैसे क्यों लाती है, इन कारणों ने उसे पड़ोसियों की सहानुभूति से वचिन कर दिया था। सब उसी को बुरा-भला कहने लगीं। मुट्ठी भर घास के लिए इतना ऊधम मचा डाला, इतनी घास तो आदमी झाड़कर फेंक देता है, घास न हुई, सोना हुआ । तुझे तो सोचना चाहिए था कि अगर किसी ने ले ही लिया, तो है, तो गाँव-घर हो का । बाहर का कोई चोर तो आया नहीं। तूने इतनी गालियाँ दी, तो किसको दी। पड़ोसियों ही को तो। सयोग से उस दिन पयाग थाने गया हुआ था। शाम को थका-मांदा लौटा तो सिलिया से बोला-ला, कुछ पैसे दे दे तो दम लगा आऊँ । थककर चूर हो गया हूँ। सिलिया उसे देखते ही हाय-हाय करके रोने लगी । पयाग ने घबड़ाकर घूछा- फूट