पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१७१

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अग्नि-समाधि १६७ . क्या हुआ क्या ? क्यों रोती है ? कहाँ गमी तो नहीं हो गई ? नैहर से कोई आदमी तो नहीं आया 2 "अब इस घर मे मेरा रहना न होगा। अपने घर जाऊँगी।" "अरे कुछ मुंह से तो बोल , हुआ क्या ? गांव में किसी ने गाली दी है, किसने गाली दी है ? घर फूंक दूं, उसका चालान करवा दूं।" सिलिया ने रो-रोकर सारी कथा कह सुनाई । पयाग पर आज थाने में खूब मार पड़ी थी । मलाया हुआ था। यह कथा सुनी, तो देह में आग लग गई । रुक्मिन पानी भरने गई थी। वह अभी घड़ा भी न रखने पाई यो कि पयाग उस पर टूट पड़ा और मारते-मारते बेदम कर दिया। वह मार का जवाव गालियों से देती थी और पयाग हरएक गाली पर और भी झल्ला-झल्लाकर मारता था। यहां तक कि रुक्मिन के घुटने फूट गये, चूड़ियाँ ट गई। सिलिया बीच बीच में कहती जाती थी-वाह रे तेरा दीदा, वाह रे तेरी ज़बान । ऐसी तो औरत ही नहीं देखी । औरत काहे को, डाइन है, ज़रा भी मुंह में लगाम नहीं। किंतु रुक्मिन उसकी बातों को मानो सुनती ही न थी। उसकी सारी शक्ति पयाग को कोसने में लगी हुई थी। पयाग मारते-मारते थक गया, पर रुक्मिन की ज़बान न थकी । वस यही रट लगी हुई थी- तू मर जा, तेरी मिट्टी निकले, तुझे भवानी खाएँ, तुझे मिरगी आये । पयाग रह-रहकर क्रोध से तिलमिला उठता और आकर दो-चार लात जमा देता। पर रुक्मिन को अब शायद चोट ही न लगती थी। वह जगह से हिलती भी न थी। सिर के बाल खोले, ज़मीन पर इन्हीं मत्रों का पाठ कर रही थी। उसके स्वर में अब क्रोध न था, केवल एक उन्माद- मय प्रवाह था। उसकी समस्त आत्मा हिंसा-कामना की अग्नि से प्रज्वलित हो रही थी। अँधेरा हुआ तो रुक्मिन उठकर एक ओर निकल गई, जैसे आँखों से आँसू की धार निकल जाती है। सिलिया भोजन बना रही थी । उसने उसे जाते देखा भी, पर कुछ पूछा नहीं । द्वार पर पयाग बैठा चिलम पो रहा था। उसने भी कुछ न कहा । ( ४ ) जव फसल पकने लगती थी तो डेढ़-दो महीने तक पयाग को हार की देखभाल करनी पड़ती थी। उसे किसानों से दोनों फसलों पर हल पीछे कुछ अनाज बंधा हुआ था। माघ हो मे वह हार के बीच में थोड़ी-सी ज़मीन साफ करके एक मईया डाल लेता था और रात को खा-पोकर आग, चिलम, तमाखू, चरस लिये हुए इसी मडैया मे जाकर पड़ रहता