१८६ मानसरोवर - कहीं भाव और गिर जाय तो ! अनाज मे घुन हो लग जाय, कोई मुद्दई घर में आग ही लगा दे। सब बातें सोच लो अच्छी तरह । हरनाथ ने व्यग्य से, कहा-इस तरह सोचना है, तो यह क्यों नहीं सोचते कि कोई चोर ही 'उठा ले जाय, या बनी-वनाई दीवार बैठ जाय, ये बातें भी तो होती ही हैं। चौधरी के पास अब और कोई दलील न थी, कमज़ोर सिपाही ने ताल तो ठोकी, अखाड़े में उतर भी पड़ा, पर तलवार की चमक देखते ही हाथ-पांव फूल गये। वगलें झांककर चौधरी ने कहा-तो कितना लोगे ? हरनाथ कुशल योद्धा की भाँति, शत्रु को पीछे हटता देखकर, वफरकर बोला- सब-का-सब दीजिए, सौ-पचास रुपये लेकर क्या खिलवाड़ करना है ? चौधरी राजी हो गये। गोमती को उन्हें रुपये देते किसी ने न देखा था। लोक- निदा की सभावना भी न थी। हरनाथ ने अनाज भरा । अनाजों के बोरो का ढेर लग गया । आराम की मीठी नींद सोनेवाले चौधरी अब सारी रात बोरों की रखवारी करते थे, मजाल न थी कि कोई चुहिया वोरों में घुस जाय । चौधरी इस तरह झपटते थे कि बिल्ली भी हार मान लेती । इस तरह छ• महीने बीत गये । पौष में अनाज विका, पूरे ५००) का लाभ हुआ। हरनाथ ने कहा- इसमे से ५०) आप ले लें। चौधरी ने झल्लाकर कहा-५०) क्या खैरात ले लूँ ? किसी महाजन से इतने रुपये लिये होते, तो कम से-कम २००) सूद के होते, मुझे तुम दो-चार रुपये कम दे दो, और क्या करोगे।" हरनाथ ने ज्यादा वतबढाव न किया। १५०) चौधरी को दे दिया। चौधरी की आत्मा इतनी प्रसन्न कभी न हुई थी। रात को वह अपनी कोठरी में सोने गया, तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि बुढ़िया गोमती खड़ी मुसकिरा रही है। चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगा। वह नींद मे न था । कोई नशा न खाया था। गोमती सामने. खड़ी मुसकिरा रहो थी। हाँ, उस मुरझाये हुए मुख पर एक विचित्र स्फूर्ति थी। (३) कई साल बीत गये। चौधरी वराबर इसी फिक्र में रहते कि हरनाथ से रुपये निकाल लूँ, लेकिन हरनाथ हमेशा ही होले-हवाले करता रहता था। वह साल में ?
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