पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१९१

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पिसनहारो का कुआँ १८७. माल थोड़ा-सा व्याज दे देता, पर मूल के लिए हज़ार बातें बनाता था। कभी लेहने का रोना था, कभी चुकते का। हाँ, कारोबार बढता जाता था, आखिर एक दिन चौधरी ने उससे साफ-साफ कह दिया कि तुम्हारा काम चले या डुबे। मुझे परवा नहीं, महीने में तुम्हें अवश्य रुपये चुकाने पड़ेंगे। हरनाय ने बहुत उड़नघाइयाँ वताई , पर चौधरी अपने इरादे पर जमे रहे। हरनाथ ने झुंझलाकर कहा-कहता हूँ कि दो महीने और ठहरिए । बिकते ही मैं रुपये दे दूंगा। चौधरी ने दृढता से कहा-तुम्हारा माल कभी न विकेगा, और न तुम्हारे दो महीने कभी पूरे होंगे । मैं आज रुपये लूँगा। हरनाथ उसी वक्त क्रोध में भरा हुआ उठा, और दो हजार रुपये लाकर चौधरी के सामने जोर से पटक दिये। चौधरी ने कुछ मेंपकर कहा- रुपये तो तुम्हारे पास थे।" "और क्या बातों से रोज़गार होता है ?" "तो मुझे इस समय ५००) दे दो, वाकी दो महीने में दे देना । सब आज हो तो खर्च न हो जायँगे ?" हरनाथ ने ताव दिखाकर कहा-आप चाहे खर्च कीजिए, चाहे जमा कीजिए, मुझे रुपयों का काम नहीं। दुनिया में क्या महाजन मर गये हैं, जो आपकी धौंस सहूँ? चौधरी ने रुपये उठाकर एक ताक पर रख दिये। कुएँ की दागबेल डालने का सारा उत्साह ठढा पड़ गया। हरनाथ ने रुपये लौटा तो दिये थे, पर मन में कुछ और मनसूबा बाँध रखा था। आधी रात को जब घर में सन्नाटा छा गया, तो हरनाथ चौधरी की कोठरी की चूल खिसकाकर अदर घुसा । चौधरी बेखवर सोये थे। हरनाथ ने चाहा कि दोनों थैलियाँ उठाकर बाहर निकल जाऊँ, लेकिन ज्यों ही हाथ बढ़ाया, उसे अपने सामने गोमती खड़ी दिखाई दी। वह दोनों थैलियों को दोनों हाथों से पकड़े हुए थी। हरनाथ भयभीत होकर पीछे हट गया। फिर यह सोचकर कि शायद मुझे धोखा हो रहा हो, उसने फिर हाथ बढाया,