पिसनहारी का कुआँ १९३ गये । चौधरी को मृत्यु के ठीक साल-भर वाद हरनाथ ने भी इस हानि-लाभ के संसार से पयान किया। माता के जीवन का अब कोई सहारा न रहा । बीमार पड़ी, पर दवा- दर्पन न हो सकी। तीन-चार महोने तक नाना प्रकार के कष्ट झेलकर वह भी चल वसी । अव केवल उसकी बहू थी, और वह भी गर्भिणी । उस बेचारी के लिए अब कोई आधार न था। इस दशा में मजदूरी भी न कर सकती थी। पड़ोसिनों के कपड़े सो-सोकर उसने किसी भांति पांच-छ महोने काटे। पड़ोसिने क्हती थीं, तेरे लड़का होगा। सारे लक्षण बालक के थे । यही एक जोवन का आधार था। लेकिन जब कन्या हुई, तो यह आधार भी जाता रहा । माता ने अपना हृदय इतना कठोर कर लिया कि नवजात शिशु को छाती से भी न लगाती थी। पड़ोसिनों के बहुत समझाने-बुझाने पर छाती से लगाया, पर उसकी छाती में दूब की एक बूंद न यो । उस समय अभागिनी माता के हृदय मे करुणा और वात्सल्य और मोह का एक भूकप-सा आ गया। अगर किसी उपाय से उसके स्तन की अतिम बूंद देव बन जाती, तो वह अपने को धन्य मानती। वालिका की वह भोली, दीन, याचनामय, सतृष्ण छवि देखकर उसका मातृ-हृदय मानो सहस्र नेत्रो से रोदन करगे लगा था। उसके हृदय की सारी शुभेच्छाएँ, सारा आशीर्वाद, सारो विभूति, सारा अनुराग मानो उसकी आँखो से निकलकर उस वालिका को उसी भौति रजित कर देता था, जैसे इदु का शीतल प्रकाश पुष्प को रजित कर देता है , पर उस बालिका के भाग्य में मातृ-प्रेम के सुख न बदे थे। माता ने कुछ अपना रक्त, कुछ ऊपर का दूध पिलाकर उसे जिलाया , पर उसकी दशा दिन-दिन जर्ण होती जाती थी। एक दिन लोगों ने जाकर देखा, तो वह भूमि पर पड़ी हुई थी और बालिका उसकी छाती से चिपटी उसके स्तनो को चूम रही थी। शोक और दारिद्र्य से आहत शरीर में रक्त कहाँ, जिससे दूव बनता ! वही वालिका पड़ोसियों की दया-भिक्षा से पलकर एक दिन घास खोदती हुई उस स्थान पर जा पहुंची, जहाँ बुढ़िया गोमती का घर था। छप्पर कत्र के पचभूतों मे मिल चुके थे। केवल जहां-तही दीवारों के चिह बाकी थे। कहीं-कहीं आधी- आवो दीवारें खड़ो यो। बालिका ने न जाने क्या सोचकर खुरपी से गड्ढा सोदना शुरू किया। दोपहर से साँझ तक वह गडढा खोदती रही । न खाने की सुवि थी, न ।
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