पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१९२ मानसरोवर हज़म करने के लिए टाल-मटोल कर रहा है। इसलिए उन्होंने आग्रह करके रुपये वसूल कर लिये थे। अब उन्हें अनुभव हुआ कि हरनाथ के प्राण राचमुच सकट मे हैं। सोचा-अगर लड़के को हवालात हो गई, या दूकान पर कुक़ी आ गई, तो कुल- मर्यादा धूल में मिल जायगी। क्या हरज है, अगर गोमती के रुपये दे दूँ । आखिर दूकान चलती ही है, कभी-न-कभी तो रुपये हाथ मे आयेंगे ही। एकाएक किसी ने बाहर से पुकारा--'हरनाथसिंह ।' हरनाथ के मुख पर हवाइयाँ उड़ने लगी । चौधरी ने पूछा--कौन है ? "कुर्क अमीन ।” “श्या दुकान कुर्क करने आया है ?" "हाँ, मालम होता है।" "कितने रुपयो की डिग्री है ?" “१२००) की ।" "कुर्क अमीन कुछ लेने-देने से न टलेगा ?" "टल तो जाता, पर महाजन भी तो उसके साथ होगा। उसे जो कुछ लेना है, चुका होगा।" "न हो १२००) गोमती के रुपयों में से दे दो।" "उसके रुपये कौन छुयेगा । न-जाने घर पर क्या आफत आये।" "उसके रुपये कोई हज़म थोड़ा ही किये लेता है, चलो मैं दे दूं।" चौधरी को इस समय भय हुआ, कहीं मुझे भी वह न दिखाई टे। लेकिन उनकी शका निर्मूल थी । उन्होने एक थैली से २००) निकाले और दूसरी थैली मे रखकर हरनाथ को दे दिये । संध्या तक इन २०००) में एक रुपया भी न वचा । उभर से ले बारह साल गुज़र गये । न चौधरी अब इस ससार में हैं, न हरनाथ। चौधरी जब तक जिये, उन्हें कुएं की चिंता बनी रही; यहाँ तक कि मरते दम भी उनकी जवान पर कुएँ को रट लगी हुई थी। लेकिन दूकान में सदैव रुपयों का तोड़ा रहा। . चौवरी के मरते ही सारा कारोबार चौपट हो गया। हरनाथ ने आने रुपये लाभ से सतुष्ट न होकर दूने-तिगुने लाभ पर हाथ मारा-जुआ खेलना शुरू किया। साल भी न गुज़रने पाया था कि दूकान बंद हो गई, गहने-पाते, वरतन-भौड़े सब मिट्टी मे मिल