का हाथ पकड़ लिया। दोनों मित्रो मे मल्ल युद्ध होने लगा। दोनोकी निमन्त्रण तुति कर रहे थे और इतने ज़ोर से गरज-गरजकर मानो सिंह दहाड़ रहे हों । वस एसा जान पड़ता था मानो दो पीपे आपस में टकरा रहे हों। मोटे-महाबली विक्रम वजरगी। चिन्ता० -भूत-पिशाच निकट नहिं आवे । मोटे० जय-जय-जय हनुमान गुसाई। चिन्ता० - प्रभु, रखिए लाज हमारी । मोटे० (विगड़कर ) यह हनुमान चालीसा में नहीं है । चिन्ता० - यह हमने स्वय रचा है। क्या तुम्हारी तरह की यह रटन्त विद्या है | जितना कहो उतना रच दें? मोटे० अबे, हम रचने पर आ जाये तो एक दिन में एक लास स्तुतियां रच डालें , किन्तु इतना अवकाश किसे है । दोनों महात्मा अलग खड़े होकर अपने-अपने ,रचना-कौशल की डींगें मार रहे थे। मल्ल-युद्ध शास्त्रार्थ का रूप धारण करने लगा, जो विद्वानों के लिए उचित है। इतने में किसी ने चिन्तामणिजी के घर जाकर कह दिया कि पण्डित मोटेराम और चिन्तामणिजी में बड़ी लड़ाई हो रही है। चिन्तामणिजी तीन महिलाओं के स्वामी थे। कुलीन ब्राह्मण थे, पूरे वीस विस्वे । उस पर विद्वान् भी उच्चाकोटि के, दूर-दूर तक यजमानी थी। ऐसे पुरुषों को सब अधिकार है। कन्या के साथ-साथ जब प्रचुर दक्षिणा भी मिलती हो, तब कैसे इनकार किया जाय। इन तीनो महिलाओं का सारे महल्ले में आतक छाया हुआ था। पण्डितजी ने उनके नाम बहुत ही रसीले रखे ये। बड़ी स्त्री को 'अमिरती , मँझली को 'गुलाबजामुन' और छोटी को मोहन- भोग कहते थे , पर मुहल्लेवालों के लिए तीनों महिलाएँ त्रयताप से कम न थीं। घर में नित्य आंसुओं की नदी बहती रहती--खून की नदी तो पण्डितजी ने भी कभी नहीं बहाई, अधिक-से-अधिक शब्दों की ही नदी वहाई थी , पर मजाल न थी कि बाहर का आदमी किसी को कुछ कह जाय । सकट के समय तीनों एक हो जाती थीं। यह पण्डितजी के नीति-चातुर्य का सुफल था। ज्योंही ख्वर मिली कि पण्डित चिन्तामणि पर सकट पड़ा हुआ है, तीनो त्रिदोषो की भांति कुपित होकर घर से निकलीं और उनमें जो अन्य दोनों-जैसो मोटी नहीं थी, सबसे पहले समर भूमि के
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