पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२२

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१८ मानसरोवर समीप जा पहुंची। पण्डित मोटेरामजी ने उसे आते देखा, तो समझ गये कि अब कुशल नहीं। अपना हाथ छुड़ाकर वगट भागे, पीछे फिरकर भी न देखा। चिन्ता- मणिजी ने बहुत ललकारा , पर मोटेराम के कदम न रुके । चिन्ता०--अजी भागे क्यों, ठहरो, कुछ मज़ा तो चखते जाओ! मोटे० --मैं हार गया भाई, हार गया । चिन्ता-अजो, कुछ दक्षिणा तो लेते जाओ। मोटेराम ने भागते हुए कहा-दया करो, भाई, दया करो। ( ४ ) आठ बजते-बजते पण्डित मोटेगम ने स्नान और पूजा करके कहा - अब विलम्ब नहीं करना चाहिए, फकी तैयार है न ? सोना-फकी लिये तो कवसे वैठी हूँ, तुम्हें तो जैसे किसी बात को सुध ही नहीं रहती । रात को कौन देखता है कि कितनी देर पूजा करते हो । मोटे-मैं तुमसे एक नहीं, हज़ार बार कह चुका कि मेरे कामों में मत चोला करो। तुम नहीं समझ सकतीं कि मैंने इतना विलम्ब क्यो किया । तुम्हें ईश्वर ने इतनी बुद्धि ही नहीं दी। जल्दी जाने से अपमान होता है। यजमान समझता है, लोभी है, भुक्खड़ है । इसी लिए चतुर लोग विलम्ब किया करते हैं, जिसमें यजमान समझे कि पण्डितजी को इसकी सुध ही नहीं है, भूल गये होगे। बुलाने को आदमी भेजें । इस प्रकार जाने मे जो मान-महत्त्व है, वह मरभुखों की तरह जाने में क्या कभी हो सकता है ? मैं बुलावे की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। कोई-न-कोई आता ही होगा । लाओ थोड़ी फकी । बालकों को खिला दी है न ? सोना-उन्हें तो मैंने साँझ ही को खिला दी थी। मोटे०~ कोई सोया तो नहीं ? सोना-आज भला कौन सोयेगा ? सब भूख-भूख चित्ला रहे थे, तो मैंने एक पैसे का चवेना मॅगवा दिया। सब-के-सव ऊपर बैठे खा रहे हैं। सुनते नहीं हो, मार-पीट हो रही है। मोटेराम ने दाँत पीसकर कहा--जी चाहता है कि तुम्हारी गरदन पकड़कर ऐंठ दूं। भला, इस वेला चबेना मँगाने का क्या काम था ? चबेना खा लेंगे, तो वहाँ क्या तुम्हारा सिर खायेंगे । छि ! छि !! ज़रा भी बुद्धि नहीं !