- आत्म-सगीत २२१ मनोरमा-मैं रानी मनोरमा हूँ। नाव खोल दे, मुंहमांगी मजदूरी दूंगी। मांझी-तब तो नाच किसी तरह नहीं खोल सतता। रानियो का इस नदी में निवाह नहीं। मनोरमा - चौधरी, तेरे पाँव पड़ती हूँ। शीघ्र नाव खोल दे। मेरे प्राण उस और खिंचे चले जाते हैं। माँझो-क्या इनाम मिलेगा ? मनोरमा - जो तू मांगे। 'मांझी-आप ही कह दें, मैं गँवार क्या जानू, रानियों से क्या चोज़ मांगनी चाहिए। कहीं कोई ऐसी चीज़ न मांग बैठू, जो आपकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध हो । मनोरमा-मेरा यह हार अत्यंत मूल्यवान् है । में इसे खेवे में देती हूँ। मनोरमा ने गले से हार निकाला ; उसकी चमक से मांझी का मुख-मडल प्रकाशित हो गया- वह कठोर और काला मुख, जिस पर झुर्रियां पड़ी हुई थीं। अचानक मनोरमा को ऐसा प्रतीत हुआ मानो सगीत को ध्वनि और निकट हो गई। कदाचित् कोई पूर्ण ज्ञानी पुरुष आत्मानद के आवेश में उस सरिता-तट पर बैठा हुआ उस निस्तब्धनिशा को सगीत-पूर्ण कर रहा है। रानी का हृदय उछलने लगा। आह 1 कितना मनोमुग्धकर राग था ! उसने अधीर होकर कहा-मांझी, अब देर न कर, नाव खोल, मैं एक क्षण भी धीरज नहीं कर सकती। माझी इस हार को लेकर मैं क्या करूँगा ? मनोरमा-सचे मोती हैं। माझी-यह और भी विपत्ति है। माझिन गले में पहनकर पड़ोसिनो को दिखायेगी, वह सब डाह से जलेंगी, उसे गालियां देंगी। कोई चोर देखेगा, तो उसकी छाती पर साँप लोटने लगेगा । मेरी सुनसान झोपड़ी पर दिन-दहाड़े डाका पड़ जायगा। लोग चोरी का अपराध लगायेंगे। नहीं, मुझे यह हार न चाहिए। मनोरमा-तो जो कुछ तू मांग, वही दूंगी। लेकिन देर न कर। मुझे अब धैर्य नहीं है । प्रतीक्षा करने को तनिक भी शक्ति नहीं है । इस राग की एक-एक तान मेरी आत्मा को तड़पा देती है। मांझी-इससे अच्छी कोई चीज़ दीजिए। मनोरमा-अरे निर्दयी ! तू मुझे वातों मे लगाये रखना चाहता है। मैं जो देती
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