पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२२९

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ऐक्ट्रेस २२५ युवक ने जेव से कागज़ का एक टुकड़ा निकालकर कुछ लिखा और दे दिया। मैनेजर ने पुर्ने को उड़ती हुई निगाह से देखा - कुँवर निर्मलकांत चौधरी ओ० बी० ई० । मैनेजर की कोर मुद्रा कोमल हो गई। कुँवर निर्मलकात शहर के सबसे बड़े रईस और ताल्लुकदार, साहित्य के उज्ज्वल रत्न, सगीत के सिद्धहस्त आचार्य, उच्च कोटि के विद्वान् , आठ-दस लाख सालाना के नफेदार, जिनके दान से देश की कितनी ही सस्थाएँ चलतो थीं, इस समय एक क्षुद्र प्रार्थी के रूप में खड़े थे। मैनेजर अपने उपेक्षा-भाव पर लज्जित हो गया। विनम्र शब्दों में वोला-क्षमा कीजिएगा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मैं अभी तारादेवी के पास हुज़र का कार्ड लिये जाता हूँ। कुँवर साहब ने उसे रुकने का इशारा करके कहा-नहीं, अव रहने ही दीजिए, मैं क्ल पांच बजे आऊँगा । इस वक्त तारादेवी को कष्ट होगा। यह उनके विश्राम का समय है। मैनेजर-मुझे विश्वास है कि वह आपको खातिर से इतना कष्ट सहर्ष सह लेंगी, में एक मिनट मे आता हूँ। किंतु कुँवर साहब अपना परिचय देने के बाद अब अपनी आतुरता पर सयम का परदा डालने के लिए विवश घे। मैनेजर की सजनता का धन्यवाद दिया और कल आने का वादा करके चले गये। (२) तारा एक साफ़-सुधरे ओर सजे हुए कमरे मे मेज़ के सामने किसी विचार में मन बैठी थी। रात का वह दृश्य उसकी आँखों के सामने नाच रहा था। ऐसे दिन जीवन में क्या बार-बार आते हैं ! कितने मनुष्य उसके दर्शनों के लिए विकल हो रहे थे ! सब एक दूसरे पर फटे पड़ते थे। कितनों को उसने पैरों से ठुकरा दिया था- हाँ, ठुकरा दिया था। मगर उस समूह में केवल एक दिव्य मूर्ति अविचलित रूप से सदी थी। उसकी आँखों में कितना गम्भीर अनुराग था, कितना दृढ़ सकल्प । ऐसा जान पड़ता था, मानो उसके दोनों नेत्र उसके हृदय में चुभे जा रहे हैं। आज फिर उस पुरुष के दर्शन होंगे या नहीं, कौन जानता है। लेकिन यदि आज उनके दर्शन हुए, तो तारा उनसे एक बार बातचीत किये बिना न जाने देगी। यह सोचते हुए उसने आइने को ओर देखा, कमल का फूल-सा खिला था। कौन कह सकता था कि यह नव-विकसित पुष्प ३५ वसंतों की बहार देख चुका है। वह काति, १५