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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२३२

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२२८ मानसरोवर 1 चढ़कर हो सकता था ! आज उसने चुन-चुनकर आजमाये हुए तीर तरकस से निकाले, और जब अपने अस्त्रों से सजकर वह दीवानखाने में आई, तो जान पड़ा, मानो ससार का सारा माधुर्य उसकी बलाएँ ले रहा है । वह मेज़ के पास खड़ी कुँवर साहब का कार्ड देख रही थी, पर उसके कान मोटर की आवाज़ की ओर लगे हुए थे । वह चाहती थी कि कुँवर साहब इसी वक्त आ जायें और उसे इसी अन्दाज़ से खड़े देखें। इसी अन्दाज से वह उसके अङ्ग-प्रत्यङ्गों की पूर्ण छवि देख सकते थे। उसने अपनी शृङ्गार-कला से काल पर विजय पा ली थी। कौन कह सकता था कि यह चचल नव- यौवना उस अवस्था को पहुंच चुकी है । जव हृदय को शान्ति की इच्छा होती है, किसी आश्रय के लिए आतुर हो उठता है, और उसका अभिमान नम्रता के आगे सिर झुका देता है। तारादेवी को बहुत इन्तज़ार न करना पड़ा। कुँवर साहब शायद मिलने के लिए उससे भी अधिक उत्सुक थे । दस ही मिनट बाद उनकी मोटर की आवाज़ आई। तारा सँभल गई । एक क्षण में कुँवर साहव ने कमरे में प्रवेश किया। तारा शिष्टा- चार के लिए हाथ मिलाना भी भूल गई । प्रौढ़ावस्था में भी प्रेम की उद्विग्नता और असावधानी कुछ कम नहीं होती। वह किसी सलजा युवती की भांति सिर झुकाये खड़ी रही। कुँवर साहब की निगाह आते ही उसकी गर्दन पर पड़ी। वह मोतियों का हार, -जो उन्होंने रात भेंट की थी, वहां चमक रहा था। कुँवर साहब को इतना आनन्द और कभी न हुआ था। उन्हें एक क्षण के लिए. ऐसा जोन पड़ा, मानो उनके जीवन की सारी अभिलाषा पूरी हो गई । बोले- मैंने आपको आज इतने सबेरे कष्ट दिया, क्षमा कीजिएगा। यह तो आपके आराम का समय होगा ? तारा ने सिर से खिसकती हुई साड़ी को सँभालकर कहा -इससे ज्यादा आराम और क्या हो सकता था कि आपके दर्शन हुए। इस उपहार के लिए आपको मनो धन्यवाद देती हूँ। अब तो कभी-कभी मुलाकात होती रहेगो ? निर्मलकान्त ने मुसकिराकर कहा- कभी-कभी नहीं, रोज़ । आप चाहे मुझसे मिलना पसन्द न करें, पर एक बार इस ड्योढ़ी पर सिर को झुका हो जाऊँगा। तारा ने भी मुसकिराकर उत्तर दिया-उसी वक्त तक कि मनोरजन की कोई नयी वस्तु नज़र न आ जाय ! क्यों?