पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२३० मानसरोवर - उधर कुँवर साहब के भाईवन्द भी गाफिल न थे, वे किसी भांति उन्हें ताराबाई के पजे से छुड़ाना चाहते थे। कहीं कुँवर साहव का विवाह ठीक कर देना ही एक ऐसा उपाय था, जिससे सफल होने को आशा थी और यही उन लोगों ने किया। उन्हे यह भय तो न था कि कुँवर साहब इस ऐक्ट्रेस से विवाह करेंगे । हाँ, यह भय अवश्य था कि कहीं रियासत का कोई हिस्सा उसके नाम कर दे या उसके आनेवाले बच्चों को रियासत का मालिक बना दें। कुँवर साहव पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगे। यहां तक कि योरपियन अधिकारियों ने भी उन्हें विवाह कर लेने की सलाह दी । उसी दिन सन्ध्या समय कुँवर साहब ने ताराबाई के पास जाकर कहा-तारा, देखो, तुमसे एक बात कहता हूँ, इनकार न करना । तारा का हृदय उछलने लगा। बोली-कहिए, क्या बात है ? ऐसी कौन वस्तु है, जिसे आपकी भेंट करके मैं अपने को धन्य न समझू। बात मुंह से निकलने की देर थी। तारा ने स्वीकार कर लिया और होन्माद की दशा में रोती हुई कुँवर साहब के पैरों पर गिर पड़ी। (५) एक क्षण के बाद तारा ने कहा मैं तो निराश हो चली थी। आपने बड़ी लम्बी' परीक्षा ली। कुँवर साहब ने ज़बान दांतों तले दवाई, मानो कोई अनुचित बात सुन ली हो। “यह बात नहीं हैं तारा, अगर मुझे विश्वास होता कि तुम मेरी याचना स्वीकार कर लोगी, तो कदाचित् पहले ही दिन मैंने भिक्षा के लिए हाथ फैलाया होता, पर मैं अपने को तुम्हारे योग्य नहीं पाता था। तुम सदगुणों को खानि हो, और मैं मैं जो कुछ हूँ, वह तुम जानती ही हो। मैंने निश्चय कर लिया था कि उन्न-भर तुम्हारी उपासना करता रहूँगा। शायद कभी प्रसन्न होकर तुम मुझे विना मांगे ही वर- दान दे दो। बस, यही मेरी अभिलाषा थी। मुझमें अगर कोई गुण है तो यही कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, जब तुम साहित्य या सगीत या धर्म पर अपने विचार प्रकट करने लगती हो, तो मैं दग रह जाता हूँ, और अपनी क्षुद्रता पर लजित हो जाता हूँ, तुम मेरे लिए सासारिक नहीं, स्वर्गीय हो । मुझे आश्चर्य यही है कि इस समय मैं मारे खुशी के पागल क्यों नहीं हो जाता।" ,