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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२४०

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ईश्वरीय न्याय 1 । 2 कानपुर जिले में पण्डित भृगुदत्त नामक एक बड़े जमींदार थे । मुंशी सत्यनारायण उनके कारिन्दा थे। वह बड़े स्वामिभक्त और सच्चरित्र मनुष्य थे। लाखों रुपये की तह- सील और हजारों मन अनाज का लेन-देन उनके हाथ में था; पर कभी उनकी नीयत डांवाडोल न होती। उनके सुप्रबन्ध से रियासत दिनों-दिन उन्नति करती जाती थी। ऐसे कर्तव्यपरायण सेवक का जितना सम्मान होना चाहिए, उससे कुछ अधिक ही होता था । दुःख-सुख के प्रत्येक अवसर पर पण्डितजी उनके साथ बड़ी उदारता से पेश आते। धीरे-धीरे मुशीजी का विश्वास इतना बढा कि पण्डितजी ने हिसाब-किताब को समझना भी छोड़ दिया। सम्भव है, उनसे आजीवन इसी तरह निभ जाती, पर भावी प्रबल है। प्रयाग में कुम्भ लगा, तो पण्डितजी भी स्नान करने गये। वहां से लौटकर फिर वे 'घर न आये । मालूम नहीं किसी गढे में फिसल पड़े या कोई जल जन्तु उन्हें खींच ले गया, उनका फिर कुछ पता ही न चला अब मुंशी सत्यनारायण के अधिकार और भी बढे । एक हतभागिनी विधवा और दो छोटे छोटे बालकों के सिवा पण्डितजी के घर में और कोई न था । अन्त्येष्टि-क्रिया से निवृत्त होकर एक दिन शोकातुर पण्डिता-, इन ने उन्हें बुलाया और रोकर कहा-लाला, पण्डितजी हमें मझधार में छोड़कर सुरपुर को सिधार गये, अव यह नैया तुम्ही पार लगाओगे तो लग सकती है। यह सब खेती तुम्हारी ही लगाई हुई है, इससे तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। ये तुम्हारे बच्चे हैं, इन्हें अपनाओ। जब तक मालिक जिये, तुम्हें अपना भाई समझते रहे। मुझे विश्वास है कि तुम उसी तरह इस भार को सँभाले रहोगे। सत्यनारायण ने रोते हुए जवाब दिया-भाभी, भैया क्या उठ गये, मेरे भाग्य फूट गये, नहीं तो मुझे आदमी बना देते । मैं उन्हीं का नमक खाकर जिया हूँ और उन्हीं को चाकरी में मरूँगा। आप धीरज रखें। किसी प्रकार की चिन्ता न करें।