पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२४२

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२३८ मानसरोवर 1 शुभ समाचार सुनाया। भानुकुंवरि ने सजल नेत्रों से उनको धन्यवाद दिया। पण्डित. जी के नाम पर मन्दिर और घाट बनवाने का इरादा पक्का हो गया। मुंशीजी दूसरे ही दिन उस गाँव में आये । असामी नज़राने लेकर नये स्वामी के स्वागत को हाजिर हुए। शहर के रईसों की दावत हुई। लोगों ने नावों पर बैठकर गगा की खूब सैर की । मन्दिर आदि वनवाने के लिए आबादी से हटकर एक रमणीय स्थान चुना गया। ( ३ ) यद्यपि इस गाँव को अपने नाम से लेते समय मु शीजी के मन में कपट का भाव न था, तथापि दो-चार दिन मे ही उसका अकुर जम गया और धीरे-धीरे बढ़ने लगा। मुंशीजो इस गांव के आय-व्यय का हिसाव अलग रखते और अपनी स्वामिनी को उसका ब्योराससझाने की जरूरत न समझते।भानुकुंवरि इन बातों में दखल देना उचित न समझती थी; पर दूसरे कारिन्दों से सब बातें सुन-सुनकर उसे शका होती थी कि कहीं मु शीजी दगा तो न देंगे । अपने मन का भाव मुंशीजी से छिपातो थी, इस खयाल से कि कहीं कारिन्दों ने उन्हें हानि पहुँचाने के लिए यह पडयन्त्र न रचा हो । इस तरह कई साल गुजर गये। अब उस कपट के अकुर ने वृक्ष का रूप धारण किया । भानुकुंवरि को मु शीजी के उस भाव के लक्षण दिखाई देने लगे । उधर मु शो- जी के मन ने कानून से नीति पर विजय पाई, उन्होंने अपने मन मे फैसला किया कि गाँव मेरा है। हाँ, मैं भानुकुँवरि का तीस हजार का ऋणो अवश्य हूँ। वे बहुत करेंगी तो अपने रुपये ले लेगो और क्या कर सकती हैं ? मगर दोनों तरफ यह आग अन्दर-ही-अन्दर सुलगती रही। मुंशीजी शस्त्र-सज्जित होकर आक्रमण के इन्तजार में थे ओर भानुकुवरि इसके लिए अच्छा अवसर हूंढ रही थी। एक दिन उसने साहस करके मु शीजी को अन्दर बुलाया और कहा- लालाजी, 'बरगदा' के मन्दिर का काम कवसे लगवाइएगा ? उसे लिये आठ साल हो गये, अव काम लग जाय, तो अच्छा हो। जिन्दगी का कौन ठिकाना, जो काम करना है, उसे कर ही डालना चाहिए। इस ढग से इस विषय को उठाकर भानुवरि ने अपनी चतुराई का अच्छा परि- चय दिया। मुंशीजी भी दिल में इसके कायल हो गये। जरा सोचकर बोले- इरादा तो मेरा कई बार हुआ; पर मौके की ज़मीन नहीं मिलती। गगा-तट को ज़मीन असामियों के जोत में है और वे किसी तरह छोड़ने पर राजी नहीं । 3