ईश्वरीय न्याय २३९ 9 भानुकुंवरि-यह वात तो आज मुझे मालूम हुई। आठ साल हुए, इस गांव के विषय में आपने कभी भूलकर भी तो चर्चा नहीं की। मालूम नहीं, कितनी तहसील है, क्या मुनाफा है, कैसा गाँव है, कुछ सीर होती है या नहीं। जो कुछ करते हैं, आप ही करते हैं और करेंगे। पर मुझे भी तो मालूम होना चाहिए ? मुशीजी सँभल बैठे । उन्हे मालूम हो गया कि इस चतुर स्त्रो से बाजी ले जाना मुश्किल है । गाँव लेना ही है तो अब क्या डर। खुलकर बोले-आपको इससे कोई सरोकार न था, इसलिए मैंने व्यर्थ कष्ट देना मुनासिब न समझा। भानकुँवरि के हृदय में कुठार-सा लगा। पर्दे से निकल आई और सुशीजी की तरफ तेज आँखों से देखकर बोलो, आप यह क्या कहते हैं ! आपने गाँव मेरे लिए लिया था, या अपने लिये 2 रुपये मैंने दिए, या आपने ? उसपर जो खर्च पड़ा, वह मेरा था या आपका ? मेरी समझ में नहीं आता कि आप कैसो वातें करते है। सुशीजी ने सावधानी से जवाब दिया-यह तो आप जानतो ही हैं कि गाँव । हमारे नाम से चय हुआ है। रुपया जरूर आपका लगा पर उसका मैं देनदार हूँ। रहा तहसील-वसूल का खर्च ; यह सब मैंने अपने पास से किया है। उसका हिसार- किताव, आय-व्यय सव रखता गया हूँ। भानुवरि ने क्रोध से काँपते हुए कहा -इस कपट का फल आपको अवश्य मिलेगा । आप इस निर्दयता से मेरे बच्चों का गला नहीं काट सकते । मुझे नहीं मालूम था कि आपने हृदय में छुरी छिपा रखी है, नहीं तो यह नौबत ही क्यों आती। रौर, अबसे मेरी रोकड़ और बहो-खाता आप कुछ न छुए। मेरा जो कुछ होगा, ले लूंगी । जाइए, एकान्त में बैठ कर सोचिए । पाप से किसी का भला नहीं होता । तुम समझते होगे कि ये बालक अनाथ हैं, इनकी सम्पत्ति हजम कर लूंगा। इस भूल में न रहना । मैं तुम्हारे घर की ईट तक विकवा लूंगी ! यह कहकर भानुकुवरि फिर पर्दे की आड़ में आ बैठी और रोने लगी। स्त्रियां क्रोध के बाद किसी-न-किसी बहाने रोया करती हैं। लाला साहब को कोई जवाव न सूझा । वहां से उठ आये और दफ्तर जाकर काग्रज उलट-पलट करने लगे , पर भानु- कुँवरि भी उनके पीछे-पीछे दफ्तर में पहुंची और डॉटकर वोली-मेरा कोई काग्रज मत छूना । नहीं तो बुरा होगा। तुम विषैले साँप हो, मैं तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहता। मुंशीजी कागजो में कुछ काट-छाँट करना चाहते थे, पर विवश हो गये। .
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२४३
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