२५४ मानसरोवर - जज ने फैसला सुनाया-मुद्दई का दावा खारिज ।' दोनों पक्ष अपना-अपना खर्च सह यद्यपि फैसला लोगों के अनुमान के अनुसार हो था, तथापि जज के मुंह से उसे सुनकर लोगो मे हलचल-सी मच गई । उदासीन भाव से इस फैसले पर आलोचनाएँ करते हुए लोग धीरे-धीरे कमरे से निकलने लगे। एकाएक भानुकुवरि घूघट निकाले इजलास पर आकर खड़ी हो गई । जानेवाले लौट पड़े। जो वाहर निकल गये थे, दौड़कर आ गये और कौतूहलपूर्वक भानु वरि की तरफ ताकने लगे। भानुकुंवरि ने कपित स्वर में जज से कहा- सरकार यदि हुक्म दें, तो मैं सुशीजी से कुछ पूछू ! यद्यपि यह बात नियम के विरुद्ध यो, तथापि जज ने दयापूर्वक आज्ञा दे दी। तब भानुकुवरि ने सत्यनारायण की तरफ देखकर कहा- लालाजी, सरकार ने तुम्हारी डिग्री तो कर ही दी । गाँव तुम्है मुबारक रहे, मगर ईमान आदमी का सव कुछ है , ईमान से कह दो, गाँव किसका है ? हजारो आदमी यह प्रश्न सुनकर कौतूहल से सत्यनारायण की तरफ देखने लगे। मु शोजी विचार-सागर में डूब गये । हृदय में सकल्प और विकल्प मे घोर सग्राम-सागर होने लगा। हजारों मनुष्यों को आँखें उनकी तरफ जमी हुई थीं। यथार्थ वात अब किसीसे छिपी न थी। इतने आदमियों के सामने असत्य वात मुंह से निकल न सकी। लज्जा ने जबान बन्द कर लो -"मेरा" कहने में काम बनता था। कोई बात न थी, किन्तु घोरतम पाप का जो दड समाज दे सकता है, उसके मिलने का पूरा भय था । "आपका" कहने से काम बिगड़ता था । जोती-जिताई बाजी हाथ से जाती थी, पर सत्कृिष्ट काम के लिए समाज से जो इनाम मिल सकता है, उसके मिलने की पूरी आशा यो । आशा ने भय को जीत लिया । उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ईश्वर ने मुझे अपना मुख उज्ज्वल करने का यह अन्तिम, अवसर दिया है। मैं अब भी मानव-सम्मान का पात्र बन सकता हूँ। अब भी अपनी आत्मा की रक्षा कर सकता हूँ। उन्होने आगे वढ़कर भानुकुवरि को प्रणाम किया और कॉपते हुए स्वर मे वोले-"आपका !" हजारों मनुष्यों के मुंह से एक गगनस्पशी ध्वनि निकली - "सत्य की जय।" जज ने खड़े होकर कहा-यह कानून का न्याय नहीं,
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