ईश्वरीय न्याय २५३ । विपत्ति ईश्वर के न्याय को सिद्ध करती है। परमात्मन् ! इस दुर्दशा से किसी तरह मेरा उद्धार करो ! क्यों न जाकर मैं भानुकुँवरि के पैरों पर गिर पडूं और और विनय करूँ कि यह मुकदमा उठा लो ? शोक ! पहले यह बात मुझे क्यों न सूझी ? अगर कल तक मैं उनके पास चला गया होता, तो बात बन जातो, पर अब क्या हो सकता है ? आज तो फैसला सुनाया जायगा । मु शोजी देर तक इसी विचार में पड़े रहे, पर कुछ निश्चय न कर सके कि क्या करें। भानुकुवरि को भी विश्वास हो गया कि अब गाँव हाथ से गया। बेचारी हाथ मल- कर रह गई । रातभर उसे नींद न आई, रह-रहकर मु शो सत्यनारायण पर क्रोध आता था । हाय पापी | ढोल बजाकर मेरा पचास हजार का माल लिये जाता है। और मैं कुछ नहीं कर सकती । आजकल के न्याय करनेवाले बिलकुल आँख के अन्धे हैं। जिस बात को सारी दुनिया जानती है, उसमें भी उनकी दृष्टि नहीं पहुँचती । बस, दूसरो को आँखों से देखते हैं। कोरे कागजों के गुलाम हैं । न्याय वह है कि दूध का दूध, पानी का पानी कर दे , यह नहीं कि खुद ही कागज़ों के धोखे में आ जाय, खुद ही पाख- ण्डियों के जाल में फँस जाय। इसीसे तो ऐसे छली, कपटी, दगाबाज़, दुरात्माओं का साहस धढ गया है। खैर, गांव जाता है तो जाय, लेकिन सत्यनारायण, तुम तो शहर में कहीं मुँह दिखाने के लायक नहीं रहे । इस खयाल से भानुकुँवरि को कुछ शान्ति हुई ॥ शत्रु की हानि मनुष्य को अपने लाभ से भी अधिक प्रिय होती है। मानव स्वभाव ही कुछ ऐसा है । तुम हमारा एक गाँव ले गये, नारायण चाहेंगे, तो तुम भी इससे सुख न पाओगे । तुम आप नरक की आग में जलोगे, तुम्हारे घर में कोई दिया जलानेवाला न रहेगा। फैसले का दिन आ गया। आज इजलास में बड़ी भीड़ थी । ऐसे-ऐसे महानुभाव उपस्थित थे, जो बगुलों की तरह अफसरों की बधाई और विदाई के अवसरों ही में नजर आया करते हैं। वकीलों और मुख्तारों की काली पल्टन भी जमा थी। नियत समय पर जज साहब ने इजलास को सुशोभित किया। विस्तृत न्याय-भवन में सन्नाटा छा गया । अलहमद ने सदृक से तजवीज निकाली । लोग उत्सुक होकर एक-एक कदम और आगे खिसक गये।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२५७
दिखावट