पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मन्त्री मिलता-जुलता था- वह झाड़-फूंक करने नहीं जा रहा है, वह देखेगा कि लोग क्या कर रहे हैं, ज़रा डाक्टर साहब का रोना-पीटना देखेगा, किस तरह सिर पीटते हैं, किस तरह पछाड़ें खाते हैं। वह देखेगा कि बड़े लोग भी छोटों की भांति रोते हैं, या सवर कर जाते हैं। वह लोग तो विद्वान होते हैं, सवर कर जाते होंगे। हिंसा भाव को थों धीरज देता हुआ, वह फिर आगे बढ़ा । इतने में दो आदमी आते दिखाई दिये। दोनों वाते करते चले आ रहे थे- चडढा बाबू का घर उजड़ गया, यही तो एक लड़का था। भगत के कान में यह आवाज़ पड़ी। उसकी चाल और भी तेज हो गई। थकन के मारे पांव न उठते थे। शिरोभाग इतना बढ़ा जाता था, मानो अब मुंह के बल गिर पड़ेगा। इस तरह वह कोई १० मिनट चला होगा कि डाक्टर साहब का बँगला नजर आया। विजली को वत्तियां जल रही थीं , मगर सन्नाटा छाया हुआ था। रोने-पीटने की आवाज़ भो न आती थी । भगत का कलेजा धक्-वक करने लगा। कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गई ? वह दौड़ने लगा । अपनी उम्र में वह इतना तेज कभी न दौड़ा था। बस, यही मालूम होता था, मानो उसके पोछे मौत दौड़ी आ रही है। (४) दो बज गये थे। मेहमान विदा हो गये थे। रोनेवालों में केवल आकाश के तारे रह गये थे। और सभी रो-रोकर थक गये थे। बड़ी उत्सुकता के साथ लोग रह-रह- कर आकाश की ओर देखते थे कि किसी तरह सुबह हो और लाश गगा की गोद में दी जाय। सहसा भगत ने द्वार पर पहुँचकर आवाज़ दी । डाक्टर साहब समझे कोई मरीज आया होगा। किसी और दिन उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिया होता , मगर आज वाहर निकल आये। देखा, एक बूढा आदमी खड़ा है, कमर झुकी हुई, पोपला मुँह, भौहें तक सफेद हो गई थीं। लकड़ी के सहारे कांप रहा था। बड़ी नन्त्रता से बोले- क्या है भई, आज तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीवत पड गई है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना । इधर एक महीना तक तो शायद मैं किसी मरीज़ को न देख सकूँगा। भगत ने कहा-सुन चुका हूँ बाबूजी, इसीलिए आया हूँ। भैया कहां हैं, जरो .