प्रायश्चित्त २८७ तोसरे के गुलाम हैं। फिर रोब केसा ओर अफसरी कैसी ? हाँ, हमे नेकनीयती के साथ अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए । जब सुबोध से विदा होकर कर्मचारी लोग चले तव आपस में बातें होने लगी- "आदमी तो अच्छा मालूम होता है।' "हेड क्लार्क के कहने से तो ऐसा मालूम होता था कि सब को कच्चा हो खा जायगा ।" "पहले सभी ऐसी ही बातें करते हैं।" "ये दिसाने के दांत हैं। (३) सुवोध को आये एक महीना गुजर गया। बोर्ड के क्लार्क, अरदली, चपरासी सभी उसके बरताव से खुश हैं। वह इतना प्रसन्नचित है, इतना नन्न है कि जो उससे एक बार सिलता है, सदैव के लिए उसका मित्र हो जाता है। कठोर शब्द तो उसकी जवान पर आता ही नहीं। इनकार को भी वह अप्रिय नहीं होने देता , लेकिन दुष की आँखों में गुण और भी भयकर हो जाता है। सुवोध के ये सारे सद्गुण मदारी- लाल की आँखों मे खटकते रहते हैं। उसके विरुद्ध कोई-न-कोई गुप्त षड्यंत्र रचते ही रहते हैं। पहले कर्मचारियो को भड़काना चाहा, सफल न हुए। बोर्ड के मेम्बरों को भड़काना चाहा, मुँह को खाई। ठीकेदारों को उभारने का बीड़ा उठाया, लज्जित होना पड़ा । वे चाहते थे कि भुस मे आग लगाकर आप दूर से तमाशा देखें । सुबोध से यो हँसकर मिलते, यों चिकनी-चुपड़ी बातें करते, मानो उसके सच्चे मित्र हैं , पर धात में लगे रहते । सुबोध मे और सब गुण थे, पर आदमी पहचानना न जनाते थे। वे मदारीलाल को अब भी अपना दोस्त ही समझते हैं। एक दिन मदारीलाल सेक्रेटरी साहब के कमरे में गये तव कुरसी खाली देखो। वे किसी काम से बाहर चले गये थे। उनकी मेज पर पाँच हजार के नोट पुलिन्दो में बँधे हुए रखे थे। चोर्ड के मदरसों के लिए कुछ लकड़ी के सामान बनवाये गये थे। उसी के दाम थे। ठीकेदार वसूली के लिए बुलाया गया था। आज हो सेक्रेटरी साह्न ने चेक भेजकर खजाने से रुपये मंगवाये थे। मदारीलाल ने बरामदे में झांककर देखा, सुवोध का कहीं पता नहीं। उनकी नीयत बदल गई। ईर्ष्या में लोभ का सम्मिश्रण हो गया। कांपते हुए हाथों से पुलिन्दे उठाये, पतलून को दोनों जेवों में 1
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