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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२९६

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२६२ मानसरोवर पॉछ रहा हो । अभी इतने ही दिन आये हुए, पर सबसे। कितना मेल जोल हो गया था । रुपये को तो कभी परवा ही नहीं थी। दिल दरियाव था ?' मदारीलाल के सिर में चक्कर आने लगा। द्वार की चौखट पकड़कर अपने को सँभाल न लेते तो शायद गिर पड़ते । पूछा-बहुजी बहुत रो रही थी ? 'कुछ न पूछिए हजूर ! पेड़ की पत्तियां झड़ी जाती हैं । आँखें फूलकर गूलर हो गई हैं।' 'कितने लड़के बतलाये तुमने ?' 'हजूर, दो लड़के हैं और एक लड़की ।' 'हां-हाँ लड़कों को तो देख चुका हूँ ! लड़की सयानी होगी ?' 'जी हाँ, ब्याहने लायक है । रोते-रोते बेचारी की आँखें सूज आई हैं।' "नोटों के बारे में भी बातचीत हो रही होगी?' 'जी हाँ, सब लोग यही कहते हैं कि दफ्तर के किसी आदमी का काम है । दरोगाजी तो सोहनलाल को गिरफ्तार करना चाहते थे; पर साइत आपसे सलाह लेकर करेंगे। सिकट्टरी साहब तो लिख गये हैं कि मेरा किसी पर शक नहीं है। नहीं तो अब तक तहलका मच जाता । सारा दफ्तर फंस जाता।' 'क्या सेक्रेटरी साहब कोई खत लिखकर छोड़ गये हैं ?' 'हां, मालूम होता है, छुरी चलाते बखत याद आई कि सुबहे में दफ्तर के सब लोग पकड़ लिये जायेंगे । बस कलट्टर साहब के नाम चिट्ठी लिख दी।' 'चिट्ठी में मेरे बारे में भी कुछ लिखा है ? तुम्हें यह क्या मालूम होगा ?' 'हजूर, अब मैं क्या जानूँ, मुदा इतना सब लोग कहते थे कि आपकी बढ़ी तारीफ लिखी है। मदारीलाल की साँस और तेज़ हो गई। आँखों से आंसू की दो बड़ी-बड़ी बूंदें गिर पड़ीं । आँखें पोंछते हुए बोले-वे और मैं एक साथ के पढ़े थे नन्दू ! आठ-दस साल साथ रहा। साथ उठते-बैठते, साथ खाते, साथ खेलते, बस इसी तरह रहते थे जैसे दो सगे भाई रहते हों। खत में मेरो क्या तारीफ़ लिखी है ? मगर तुम्हें यह क्या मालूम होगा। 'आप तो चल ही रहे हैं, देख लीजिएगा।' 'कफ़न का इन्तज़ाम हो गया है ?' 1