पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रायश्चित्त 1 २९१ " सोहनलाल ने सफाई दी-मैंने तो अन्दर कदम ही नहीं रखा साहव । अपने जवान बेटे की कसम खाता है जो अन्दर कदम भी रखा हो।' मदारीलाल ने माथा सिकोड़कर कहा -आप व्यर्थ में कसमें क्यों खाते हैं, कोई आपसे कुछ कहता है। (सुबोध के कान में ) बैंक में कुछ रुपये हों तो निकालकर ठीकेदार को दे दिये जायें, वरना बढ़ो वदनामी होगी। नुकसान तो हो ही गया, अब उसके साथ अपमान क्यों हो। सुबोध ने करुण-स्वर में कहा--बैक में मुश्किल से दो-चार सौ रुपये होंगे भाई- जान ! रुपये होते तो क्या चिन्ता थो । समझ लेता, जैसे पच्चोस हज़ार उड़ गये वैसे तीस हजार उड़ गये । यहाँ तो कफन को भी कौड़ी नहीं। उसी रात को सुबोवचन्द्र ने आत्महत्या कर ली। इतने रुपयों का प्रबन्ध करना उनके लिए कठिन था। मृत्यु के परदे के सिवा उन्हें अपनी वेदना, अपनी विवशता को छिपाने की और कोई आइ न थी। ( ४ ) दूसरे दिन प्रात काल चारासी ने मदारी लाल के घर पहुँचकर आवाज़ दी। मदारी को रात-भर नींद न आई थी। घबराकर बाहर आये। चपरासी उन्हें देखते ही बोला-हजूर ! बड़ा ग़ज़ब हो गया, सिकट्टरी साहब ने रात को अपनी गर्दन पर छुरी फेर ली। मदारीलाल की आँखें ऊपर चढ़ गई , मुंह फैल गया और सारी देह सिहर उठी मानो उनका हाथ बिजली के तार पर पड़ गया हो। 'छुरी फेर लो?' 'जी हाँ, आज सबेरे मालूम हुआ। पुलिसवाले जमा हैं। आपको बुलाया है।' 'लाश अभी पड़ी हुई है ? 'जी हाँ, अभी डाक्टरो होनेवाली है ?' 'बहुत-से लोग जमा हैं ? 'सव बड़े-बड़े अफसर जमा हैं । हजूर, लहास की और ताकते नहीं बनता। कैसा भलामानुस हीरा आदमी था ! सब लोग रो रहे हैं। छोटे-छोटे तो बच्चे है, एक सयानी लड़को है व्याहने लायक । बहुजी को लोग कितना रोक रहे हैं ; 'पर बार-बार दौड़कर लहास के पास आ जातो हैं । कोई ऐसा नहीं है जो स्माल से आँखें ।