कप्तान साहब २९९ दुरवस्था में जगतसिंह की हथ-लपकियाँ बहुत अखरती। उन्होंने कितनी ही वार उसे बड़ो निर्दयता से पीटा ! जगतसिंह भीमकाय होने पर भी चुपके से मार खा लिया करता था। अगर वह अपने पिता के हाथ पकड़ लेता, तो वह हिल भी न सकते पर जगतसिंह इतना सीनाजोर न था। हां, मार-पीट, घुड़की-धमकी किसोका भी उस पर असर न होता था। 'जगतसिंह ज्योंही घर में कदम रखता, चारो ओर से कौव-काव मच जातो मां दुर-दुर करके दौड़ती, वहनें गालियां देने लगती, माना घर में कोई सांड़ घुस आया हो। बेचारा उलटे पाँव भागता । कभी-कभी दो-दो, तीन-तीन दिन भूखा रह जाता। घरवाले उसकी सूरत से जलते । इन तिरस्कारों ने उसे निर्लज बना दिया था । कष्टों के ज्ञान से वह हत-सा हो गया था। जहां नींद आ जाती वहाँ पड़ रहना, जो कुछ मिल जाता वही खा लेता। ज्यों-ज्यों घरवालों को उसकी चौर-कला के गुप्त साधनों का ज्ञान होता जाता था, वे उससे चौकन्ने होते जाते थे। यहाँ तक कि एक बार पूरे महीने भर तक उसकी दाल न गली । चरसवाले के कई रुपये ऊपर चढ गये। गांजेवाले ने धुआंधार तकाजे करने शुरू किये । हलवाई कड़वी बातें सुनाने लगा ।वेचारे जगत को निकलना मुश्किल हो गया । रात-दिन ताक-झोंक में रहता , पर घात न मिलती थी। आखिर एक दिन बिल्ली के भागों छोंका टा। भक्तसिंह दोपहर को डाकखाने से चले, तो एक बोमा रजिस्ट्री जेब में डाल ली। कौन जाने कोई हरकारा या डाकिया शरारत कर जाय , किन्तु घर आये तो लिफाफे को अचकन की जेब से निकालने की सुधि न रही। जगतसिंह तो ताक लगाये हुए था ही। पैसों के लोभ से जेब टटोलो, तो लिफाफा मिल गया । उस पर कई आने के टिकट लगे थे। वह कई बार टिकट चुराकर आधे दामों पर बेच चुका था। चट लिफाफा उड़ा लिया। यदि उसे मालूम होता कि उसमें नोट हैं, तो कदाचित् वह न छूता , लेकिन जब उसने लिफ़ाफा फाड़ डाला और उसमें से नोट निकल पड़े, तो वह बड़े सकट में पड़ गया । वह फटा हुआ लिफाफा गरा फाड़-फाड़कर उसके दुष्कृत्य को धिकारने लगा। उसकी दशा उस शिकारी को-सी हो गई, जो चिड़ियों का शिकार करने जाय और अनजान में किसो आदमी पर निशाना मार दे। उसके मन में पश्चात्ताप था, लज्जा थी, दुख था; पर उस भूल का दण्ड सहने की शक्ति न थी। उसने नोट लिफाफे में रख दिये और बाहर चला गया।
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