पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/३०२

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कप्तान साहब +- (१) जगतसिंह को। स्कूल जाना कुनैन खाने या मछली का तेल पीने से कम अप्रिय न था । वह सैलानी, आवारा, घुमक्कड़ युवक था। कभी अमरूद के बागों की ओर निकल जाता और अमरूदों के साथ माली की गालियां बड़े शौक से खाता। कभी दरिया की सैर करता और मल्लाहों को डोंगियों में बैठकर उस पार के देहातों में निकल जाता । गालियां खाने में उसे मज़ा आता था। गालियां खाने का कोई अवसर वह हाथ से न जाने देता। सवार के घोड़े के पीछे ताली बजाना, एक्कों को पीछे से पकड़कर अपनी ओर खींचना, वुड्ढों की चाल की नकल करना, उसके मनोरञ्जन के विषय थे। आलसी काम तो नहीं करता, पर दुर्व्यसनों का दास होता है, और दुर्व्यसन धन के विना पूरे नहीं होते । जगतसिह को जब अवसर मिलता, घर से रुपये उड़ा ले जाता। नकद न मिले, तो बरतन और कपड़े उठा ले जाने में भी उसे सकोच न होता था। घर में जितनी शीशियाँ और बोतलें थीं, वह सब उसने एक-एक करके गुदड़ी बाज़ार पहुँचा दो । पुराने दिनों की कितनी चीजें घर में पड़ी थीं। उसके मारे एक भी न बची । इस कला में ऐसा दक्ष और निपुण था कि उसको चतुराई और पटुता पर आश्चर्य होता था। एक बार वह बाहर-हो-बाहर, केवल कानिसों के सहारे, अपने दो-मंजिला मकान की छत पर चढ़ गया और ऊपर ही से पीतल की एक बड़ी थाली लेकर उतर आया । घरवालों को आहट तक न मिली। उसके पिता ठाकुर भक्तसिंह अपने कस्बे के डाकखाने के मुंशी थे । अफसरों ने उन्हें घर का डाकखाना बड़ी दौड़-धूप करने पर दिया था ; किन्तु भक्तसिंह जिन इरादों से यहां आये थे, उनमें से एक भी पूरा न हुआ। उलटो हानि यह हुई कि देहातों में जो भाजी-साग, उपले-ई धन मुफ्त मिल जाते थे, यहां बन्द हो गये । यहाँ सबसे पुराना घरांव था। किसी को न दबा सकते थे, न सता सकते थे। इस ,