कप्तान साहब ३०१ जब कवायद खत्म हो गई, तो एक छरहरे डील का युवक नायक के सामने आकर खड़ा हो गया । नायक ने पूछा-क्या नाम है ? सैनिक ने फौजी सलाम करके कहा-जगतसिंह ।- 'क्या चाहते हो 'फौज में भरती कर लीजिए।' 'मरने से तो नहीं डरते?' 'विलकुल नहीं -राजपूत हूँ।' 'बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।' 'इसका भी डर नहीं।' 'अदन जाना पड़ेगा। 'खुशी से जाऊँगा।' कप्तान ने देखा, बला का हाजिर-जवाव, मन-चला, हिम्मत का धनी जवान है, तुरत फौज में भरती कर लिया। तीसरे दिन रेजिमेंट अदन को रवाना हुआ। मगर ज्यों-ज्यों जहाज़ आगे चलता था, जगत का दिल पीछे रहा जाता था। जब तक ज़मीन का किनारा नज़र आता रहा, वह जहाज़ के डेक पर खड़ा अनुरक्त. नेत्रों से उसे देखता रहा। जव वह भूमि-तट जल में विलीन हो गया, तो उसने एक ठढी साँस ली और मुँह ढौंपकर रोने लगा। आज जीवन में पहली बार उसे प्रियजनों की याद आई। वह छोटा-सा अपना कस्वा, वह गांजे की दूकान, वह सैर-सपाटे, वह सुहृद्-मित्रों के जमघटे आँखों में फिरने लगे। कौन जाने फिर कभी उनसे भेंट होगी या नहीं। एक बार वह इतना बेचैन हुआ कि जी में आया, पानी में कूद पड़े। (३) जगतसिंह को अदन मे रहते तीन महीने गुजर गये। भांति-भांति की नवीन- ताओं ने कई दिनो तक उसे मुग्ध रखा लेकिन पुराने सस्कार फिर जागृत होने लगे । अव कभी-कभी उसे स्नेहमयी माता को याद भी आने लगी, जो पिता के क्रोध, बहनों के धिक्कार और स्वजनों के तिरस्कार में भी उसको रक्षा करती थी। उसे वह दिन याद आया जब एक बार वह बीमार पड़ा था। उसके वचने की कोई आशा न थी, पर न तो पिता को उसकी कुछ चिन्ता थी, न बहनों को। केवल माता थी, जो गत-को-रात उसके सिरहाने वैठी अपनी मधुर, स्नेहमयी वातों से उसको पीड़ा O ,
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