पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/३०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३०२ मानसरोवर शान्त करती रही थी। उन दिनों कितनी बार उसने उस देवी को नीरव रात्रि में रोते देखा था। वह स्वयं रोगों से जीर्ण हो रही थी । लेकिन उसकी सेवा शुश्रूषा में वह अपनी व्यथा को ऐसी भूल गई थी, मानो उसे कोई कष्ट हो नहीं। क्या उसे माता के दर्शन फिर होंगे ? वह इसी क्षोभ और नैराश्य में समुद्र तट पर चला जाता और घण्टों अनन्त जल-प्रवाह को देखा करता । कई दिनों से उसे घर पर एक पत्र भेजने की इच्छा हो रही थी , किन्तु लज्ना और ग्लानि के कारण वह टालता जाता था। आखिर, एक दिन उससे न रहा गया। उसने पत्र लिखा और अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगी। पत्र आदि से अन्त तक भक्ति से भरा हुआ था। अन्त में उसने इन शब्दों में अपनी माता को आश्वासन दिया था-'माताजी, मैंने बड़े-बड़े उत्पात किये हैं, आप लोग मुझसे तग आ गई थी, मैं उन सारी भूलों के लिए सच्चे हृदय से लज्जित हूँ और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जोता रहा, तो कुछ-न-कुछ कर दिखाऊँगा । तब कदाचित् आपको मुझे अपना पुत्र कहने में सकोच न होगा। मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर सकूँ । यह पत्र लिखकर उसने डाक में छोड़ा और उसी दिन से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा ; किन्तु एक महीना गुजर गया और कोई जवाव न आया। अब उसका जी घवड़ाने लगा। जवाब क्यों नहीं आता-कहीं माताजी बीमार तो नहीं हैं ? शायद दादा ने क्रोधवश जवाब न लिखा होगा। कोई और विपत्ति तो नहीं आ पढ़ी, कैम्प में एक वृक्ष के नीचे कुछ सिपाहियों ने शालिग्राम की एक मूर्ति रख छोड़ी थी, कुछ श्रद्धाल सैनिक रोज उस प्रतिमा पर जल चढाया करते थे। जगतसिंह उनकी हँसी उड़ाया करता ; पर आज वह विक्षिप्तों की भांति उस प्रतिमा के सम्मुख जाकर बड़ी देर तक मस्तक झुकाये बैठा रहा । वह इसी ध्यानावस्था में बैठा था कि किसीने उसका नाम लेकर पुकारा । यह दफ्तर का चपरासी था और उसके नाम की चिट्ठी लेकर आया था। जगतसिंह ने पत्र हाथ में लिया तो उसकी सारी देह कांप उठी। ईश्वर की स्तुति करके उसने लिफापा खोला और पत्र पढा । लिखा था- 'तुम्हारे दादा को ग्रवन के अभियोग में ५ वर्ष की सजा हो गई है। तुम्हारी माता इस शोक में मरणासन्न है । छुट्टी मिले, तो घर चले आओ।' जगतसिंह ने उसी वक्त कप्तान के पास जाकर कहा- हुजूर, मेरी माँ बीमार है, मुझे छुट्टी दे दीजिए। 1