पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/३०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३०४ मानसरोवर (५) सवा चार वर्ष बीत गये। सन्ध्या का समय है। नैनी जेल के द्वार पर भोद लगी हुई है। कितने ही कैदियों की मीयाद पूरी हो गई है। उन्हें लिवा जाने के लिए उनके घरवाले आये हुए हैं ; किन्तु बूढ़ा भक्तसिंह अपनी अँधेरी कोठरी में सिर झुकाये उदास बैठा हुआ है । उसकी कमर झुककर कमान हो गई है। देह अस्थिपजर- मात्र रह गई है। ऐसा जान पड़ता है, किसी चतुर शिल्पी ने एक अकाल-पीड़ित मनुष्य की मूर्ति बनाकर रख दी है। उसकी मीयाद भी पूरी हो गई है । लेकिन उसके घर से कोई नहीं आया । कौन आये ? आनेवाला था ही कौन ? एक बूढे किन्तु हृष्ट-पुष्ट कैदो ने आकर उसका कवा हिलाया और बोला- कहो भगत, कोई घर से आया ? भक्तसिंह ने कपित कंठस्वर से कहा-घर पर है ही कौन ? 'घर तो चलोगे हो ? 'मेरे घर कहाँ है ? 'तो क्या यहीं पड़े रहोगे ?' 'अगर यह लोग निकाल न देंगे, तो यहीं पड़ा रहूँगा।' आज चार साल के बाद भक्तसिंह को अपने प्रताड़ित, निर्वासित पुत्र को याद आ रही थी। जिसके कारण जीवन का सर्वनाश हो गया, आवरू मिट गई, घर बर- वाद हो गया, उसकी स्मृति भी उन्हें असत्य थी ; किन्तु आज नैराश्य और दु ख के अथाह सागर में डूबते हुए उन्होंने उसी तिनके का सहारा लिया। न-जाने उस बेचारे की क्या दशा हुई ? लाख बुरा है, है तो अपना लड़का ही। खानदान को निशानी तो है, मरूँगा तो चार आंसू तो वहायेगा, दो चिल्लू पानी तो देगा। हाय! मैंने उसके साथ कमी प्रेम का व्यवहार नहीं क्यिा। ज़रा भी शरारत करता, तो यमदूत की भांति उसकी गर्दन पर सवार हो जाता । एक वार रसोई में विना पैर वोये चले जाने के दड में मैंने उसे उल्टा लटका दिया था। कितनी बार केवल जोर से बोलने पर मैंने उसे तमाचे लगाये। पुत्र-सा रत्न पाकर मैंने उसका आदर न किया। यह उसीका दड है। जहाँ प्रेम का वधन शिथिल हो, वहाँ परिवार की रक्षा कैसे हो सकती है ?