पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/३०९

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कप्तान साहब ३०५ ( ६ ) सबेग हुआ। आशा का सूर्य निकला। आज उसकी रश्मियां कितनी कोमल और मधुर यों, वायु कितनी सुखद, आकाश कितना मनोहर, वृक्ष कितने हरे-भरे, पक्षियों का क्लरव कितना मोठा ! सारी प्रकृति आशा के रङ्ग में रंगो हुई थी , पर भक्तसिंह के लिए चारों ओर घोर अन्धकार था। जेल का अफसर आया । कैदी एक पक्ति मे खड़े हुए। अफसर एक-एक का नाम लेकर रिहाई का परवाना देने लगा। कैदियों के चेहरे आशा से प्रफुल्लित थे जिसका नाम आता, वह खुश-खुश अफ़सर के पास जाता, परवाना लेता, झुककर सलाम करता और तब अपने विपत्ति-काल के सजियों से गले मिलकर बाहर निकल जाता। उसके घरवाले दौड़कर उससे लिपट जाते । कोई पैसे लुटा रहा था, कहीं मिठाइयां बांटी जा, रही थीं, कहीं जेल के कर्मचारियों को इनाम दिया जा रहा था। आज नरक के पुतले विनम्रता के देवता बने थे। अन्त में, भक्तसिंह का नाम आया। वह सिर झुकाये, आहिस्ता-आहिस्ता जेलर के पास गये और उदासीन भाव से परवाना लेकर जेल के द्वार की ओर चले, मानो सामने कोई समुन्द्र लहरें मार रहा है। द्वार से • बाहर निकलकर वह जमीन पर बैठ गये । कहाँ जाय ? सहसा उन्होंने एक सैनिक अफसर को घोड़े पर सवार जेल की ओर आते देखा। उसकी देह पर खाकी वरदी थी, सिर पर कारचोबी साफा । अजीव शान से घोड़े पर बैठा हुआ था। उसके पीछे-पीछे एक फिटन आ रही थी। जेल के सिपाहियों ने अफसर को देखते ही बन्दूकें संभाली और लाइन में खड़े होकर सलाम किया। भक्तसिंह ने मन में कहा-एक भाग्यवान् वह है जिसके लिए फिटन आ रही है ओर एक अभागा मैं हूँ, जिसका कहीं ठिकाना नहीं। फौजी अफसर ने इधर-उधर देखा और घोड़े से उतर कर सीधे भक्तसिंह के सामने आकर खड़ा हो गया । भक्तसिंह ने उसे ध्यान से देखा और तव चौंककर उठ खड़े हुए और बोले- अरे ! बेटा जगतसिंह ! जगतसिंह रोता हुआ उनके पैरो पर गिर पड़ा। .