सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३० मानसरोवर 0 O- मुँह पर पड़ता है। जब तुम धर्म का एक लक्षण भी नहीं जानते, तब तुमसे क्या बात करूँ । ब्राह्मण को धैर्य रखना चाहिए। मोटे -पेट के गुलाम हो । ठकुरसोहाती कर रहे हो, कि एकाध पत्तल मिल जाय । यहाँ मर्यादा का पालन करते हैं। चिन्ता -कह तो दिया भाई कि तुम बड़े, मैं छोटा, अव और क्या कहूँ। तुम सत्य कहते होगे, मैं ब्राह्मण नहीं, शूद्र हूँ। रानी - ऐसा न कहिए चिन्तामणिजी, आप यदि जन्म से शूद्र भी हों, तो इतने गुण रखते हुए आप ब्राह्मण ही हैं। मोटे. -अच्छा चिन्तामणिजी, इसका बदला न लिया तो कहना ! यह कहते हुए पण्डित मोटेराम वालक-वृन्द के साथ बाहर चले आये और भाग्य को कोसते हुए घर को चले। बार-बार पछता रहे थे कि इस दुष्ट चिन्तामणि को क्यों बुला लाया । सोना ने कहा- भण्डा फूटत-फूटत बच गया। फेकुआ नाँव बताय देत । काहे रे, अपने बाप केर नौव बताय देते ! फेकू-और क्या । वे तो सच-सच पूछती थीं ! मोटे०-चिन्तामणि ने रङ्ग जमा लिया, अव आनन्द से भोजन करेगा। सोना-तुम्हार एको विद्या काम न आई । ऊ तीन बाजी मार लेगा। मोटे० -मैं तो जानता हूँ, रानी ने जान-बूझकर कुत्ते को बुला लिया। सोना-मैं तो ओका मुंहे देखत ताड़ गई कि हमका पहचान गई । इधर तो ये लोग पछताते चले जाते थे। उधर चिन्तामणि की पांचों घी में थीं । आसन मारे भोजन कर रहे थे । रानी अपने हाथों से मिठाइयाँ परोस रही थीं , वार्तालाप भी होता जाता था। रानी -बड़ा धूर्त है । मैं तो चालकों को देखते ही समझ गई। अपनी स्त्री को भेष बदलकर लाते उसे लज्जा भी न आई। चिन्ता०-मुझे कोस रहे होगे। रानी--मुझसे उड़ने चला था। मैंने भी कहा था-बचा, तुमको ऐसी शिक्षा दूंगी कि उम्र-भर याद करोगे। टामी को बुला लिया। चिन्ता० सरकार की बुद्धि को धन्य है !