४० मानसरोवर कितने माता-पिता हैं, जिनके कलेजे पर जवान बेटों का दाग न हो ? वह भारत नहीं रहा, भारत गारत हो गया ।' यही चौबेजी की शैली थी। वह वर्तमान की अधोगति और दुर्दशा तया भूत की समृद्धि और सुदशा का राग अलापकर लोगों में जातीय स्वाभिमान को जाग्रत कर देते थे। इसी सिद्धि की बदौलत उनकी नेताओं में गणना होती थी। विशेषत हिन्दू-सभा के तो वह कर्णधार ही समझे जाते थे। हिन्दू-सभा के उपासकों में कोई ऐसा उत्साही, ऐसा दक्ष, ऐसा नीति-चतुर दूसरा न था। यों कहिए कि सभा के लिए उन्होंने अपना जीवन ही उत्सर्ग कर दिया था। धन तो उनके पास न था, क्म- से-कम लोगों का विचार यही था , लेकिन साहस, धैर्य और बुद्धि-जैसे अमूल्य रत्न उनके पास अवश्य थे, और ये सभी सभा को अर्पण थे। 'शुद्धि' के तो मानो वह प्राण ही थे । हिन्दू-जाति का उत्थान और पतन, जीवन और मरण उनके विचार में इसी प्रश्न पर अवलम्बित था। शुद्धि के सिवा अव हिन्दू-जाति के पुनर्जीवन का और कोई उपाय न था । जाति की समस्त नैतिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक बीमारियों की दवा इसी आन्दोलन की सफलता में मर्यादित थी, और वह तन-मन से इसका उद्योग किया करते थे। चन्दै वसूल करने मे चौवेजी सिद्ध हस्त थे । ईश्वर ने उन्हें वह 'गुर' बता दिया था कि पत्थर से भी तेल निकाल सकते थे। कजूसों को तो वह ऐसा उलटे छुरे से मुड़ते थे कि उन महाशयों को सदा के लिए शिक्षा मिल जाती थी। इस विषय में पण्डितजी साम, दाम, दण्ड और भेद, चारों नीतियों से काम लेते थे, यहाँ तक कि राष्ट्र-हित के लिए डाका और चोरी को भी क्षम्य समझते थे। ( २ ) गरमी के दिन थे। लीलाधरजी किसी शीतल पार्वत्य-प्रदेश को जाने की तैयारियां कर रहे थे कि सैर-को-सैर हो जायगी, और वन पड़ा तो कुछ चन्दा भी वसूल कर लायेंगे। उनको जब भ्रमण की इच्छा होती, तो मित्रों के साथ एक टेपु- टेशन के रूप में निकल खड़े होते , अगर एक हजार रुपये वसूल करके वह इसका आधा सैर-सपाटे में खर्च भी कर दें, तो किसी की क्या हानि ? हिन्दू-सभा को तो कुछ-न-कुछ मिल ही जाता था। वह न उद्योग करते, तो इतना भी न मिलता। पण्डितजी ने अवकी सपरिवार जाने का निश्चय किया था। जबसे 'शुद्धि' का
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