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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/४३

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७ पण्डित लीलाधर चौबे की ज़बान में जादू था। जिस वक्त वह मञ्च पर खड़े होकर अपनी वाणी की सुधा-वृष्टि करने लगते थे, श्रोताओं की आत्माएँ तृप्त हो जाती थीं, लोगों पर अनुराग का नशा छा जाता था। चौवेजी के व्याख्यानों में तत्त्व तो वहुत कम होता था, शब्द-योजना भी बहुत सुन्दर न होती थी , लेकिन उनकी शैली इतनी आकर्षक, रजक और मर्मस्पर्शी थी कि एक ही व्याख्यान को वार-बार दुहराने पर भी उसका असर कम न होता , वल्कि घन की चोटों की भांति और भी प्रभावोत्पादक हो जाता था । हमें तो विश्वास नहीं आता , किन्तु सुननेवाले कहते हैं, उन्होने केवल एक व्याख्यान रट रखा है। और उसी को वह शब्दश प्रत्येक सभा में एक नये अन्दाज से दुहराया करते हैं । जातीय गौरव-गान उनके व्याख्यानों का प्रधान गुण था मञ्च पर आते ही भारत के प्राचीन गौरव और पूर्वजो की अमर-कीर्ति का राग छेड़कर सभा को मुग्ध कर देते थे। यथा- 'सज्जनो। हमारी अधोगति की कथा सुनकर किसकी आँखों से अश्रुवारा न निकल पड़ेगी ? हमें अपने प्राचीन गौरव को याद करके सन्देह होने लगता है कि हम वही हैं, या बदल गये। जिसने कल सिंह से पजा लिया, वह आज चूहे को देखकर विल खोज रहा है। इस पतन की भी कोई सीमा है ? दूर क्यों जाइए, महाराज चन्द्रगुप्त के समय को ही ले लीजिए । यूनान का सुविज्ञ इतिहासकार लिखता है कि उस ज़माने मे यहाँ द्वार पर ताले न डाले जाते थे, चोरी कहीं सुनने में न आती थी, व्यभिचार का नाम-निशान न था, दस्तावेज़ो का आविष्कार ही न हुआ या, पुर्जी पर लाखों का लेन-देन हो जाता था, न्याय-पद पर वैठे कर्मचारी मक्खियाँ मारा करते थे। सज्जनो, उन दिनो कोई आदमी जवान न मरता था ( तालियां )। हां, उन दिनों कोई आदमी जवान न मरता था। बाप के सामने वेटे का अवसान हो जाना, एक अश्रूत-पूर्व-एक असम्भव -पटना थी। आज ऐसे