४२ मानसरोवर लहराने लगा। सेवकों ने अपनी-अपनी वर्दिया निकाली, स्थानीय धन-कुवेरों ने दावत के सामान भेजे, रावटियां पड़ गई । चारो ओर ऐसी चहल-पहल हो गई, मानो किसी राजा का कैम्प है। ( ३ ) रात के आठ बजे थे । अछूतों की एक वस्ती के समीप, सेवक दल का कैंप, गैस के प्रकाश से जगमगा रहा था। कई हजार आदमियों का जमाव था, जिनमें अधि- काश अछूत ही थे। उनके लिए अलग टाट बिछा दिये गये थे। ऊँचे वर्ण के हिन्दू कालीनों पर बैठे हुए थे। पण्डित लीलाधर का धुआँधार व्याख्यान हो रहा था- 'तुम उन्हीं ऋषियों की सन्तान हो, जो आकाश के नीचे, एक नई सृष्टि की रचना कर सकते थे ! जिनके न्याय, बुद्धि और विचार-शक्ति के सामने आज सारा ससार सिर झुका रहा है।' सहसा एक बूढे अछूत ने उठकर पूछा-हम लोग भी उन्हीं ऋषियों की सन्तान हैं ? लीलाधर-निस्स देह ! तुम्हारी धमनियों में भी उन्हीं ऋषियों का रक्त दौड़ रहा है और यदापि आज का निर्दयी, कठोर, विचार-हीन और सकुचित हिन्दू समाज तुम्हें अवहेलना की दृष्टि से देख रहा है , तथापि तुम किसी हिन्दू से नीच नहीं हो, चाहे वह अपने को कितना ही ऊँचा समझता हो । बूढा'तुम्हारी सभा हम लोगो की सुध क्यों नहीं लेती ? लीलाधर-हिन्दू-सभा का जन्म अभी थोड़े ही दिन हुए हुआ है, और इस अल्पकाल में उसने जितने काम किये हैं, उन पर उसे अभिमान हो सकता है। हिन्दू- जाति शताब्दियों के बाद गहरी नींद से चौंकी है, और अब वह समय निकट है, जब भारतवर्ष में कोई हिन्दू किसी हिन्दू को नीच न समझेगा, जब वह सब एक दूसरे को भाई समझेगे। श्रीरामचन्द्र ने निषाद को छाती से लगाया था, शवरी के जूठे बेर खाये थे..। बूढा -आप जब इन्हीं महात्माओं की सतान हैं, तो फिर ऊँच-नीच में क्यों इतना भेद मानते हैं । लीलाधर- इसलिए कि हम पतित हो गये हैं-अज्ञान में पड़कर उन महा- त्माओं को भूल गये हैं।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/४६
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