पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/५०

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. ४६ मानसरोवर के वश में रग । सारे कपड़े लहू-लुहान हो रहे थे । समझ गया, पण्डितजो के साथियों ने उन्हें मारकर अपनी राह ली। सहसा पण्डितजी के मुंह से कराहने की आवाज़ 'निकली। अभी जान वाकी थी। बूढा तुरन्त दौड़ा हुआ गांव में गया, और कई आदमियों को लाकर पण्डितजी को अपने घर उठवा ले गया । मरहम-पट्टी होने लगी । बूढा दिन-के दिन और रात-की-रात पण्डितजी के पास बैठा रहता। उसके घरवाले उनकी शुश्रूषा में लगे रहते। गाँववाले भी यथाशक्ति सहायता करते । इस वेचारे का यहाँ कौन अपना बैठा हुआ है ? अपने हैं तो हम, वेगाने हैं तो हम । हमारे ही उद्धार के लिए तो बेचारा यहाँ आया था, नहीं तो यहाँ उसे क्या लेना था 2 कई बार पण्डितजी अपने घर पर वीमार पड़ चुके थे ; पर उनके घरवालों ने इतनी तन्मयता से उनकी तीमारदारी न की थी। सारा घर, और घर ही नहीं, सारा गाँव उनका गुलाम बना हुआ था। अतिथि-सेवा उनके धर्म का एक अग थी। सभ्य-स्वार्थ ने अभी उस भाव का गला नहीं घोंटा था । साँप का मन्त्र जाननेवाला देहाती अव भी माघ-पूस की अधेरी मेघाच्छन्न रात्रि में मन्त्र माड़ने के लिए टस-पाँच कोस पैदल दौड़ता हुआ चला जाता है। उसे डवल फीस और सवारी की ज़रूरत नहीं होती। बूढा मल मूत्र तक अपने हाथो उठाकर फेंकता, पण्डितजी की घुड़कियों सुनता, सारे गाँव से दूध मांगकर उन्हें पिलाता । पर उसकी योरियाँ कभी मैला न होती। अगर उसके कहीं चले जाने पर घरवाले लापरवाही करते तो आकर सबको डाटता । महीने-भर के बाद पण्डितजी चलने-फिरने लगे, और अब उन्हें ज्ञात हुआ कि इन लोगों ने मेरे साथ कितना उपकार किया है। इन्हीं लोगों का काम था कि मुझे मौत के मुंह से निकाला, नहीं तो मरने में क्या कसर रह गई यी ? उन्हे अनुभव हुआ कि मैं जिन लोगों को नीच समझता था, और जिनके उद्धार का बीड़ा उठाकर आया था, वे मुझसे कहीं ऊँचे हैं । मैं इस परिस्थिति में कदाचित् रोगी को किसी अस्पताल भेजकर ही अपनी कर्तव्यनिष्ठा पर गर्व करता , समझता-~मैंने दधीचि और हरिश्चन्द्र का मुख उज्ज्वल कर दिया। उनके रोएँ-रोएँ से इन देव-तुल्य प्राणियों के प्रति आशीर्वाद निकलने लगा। तीन महीने गुजर गये। न तो हिन्दू-सभा ने पण्डितजी की खबर ली, और न