४८ मानसरोवर निश्चय कर लिया था कि या तो इन लोगों को बचा ही लूंगा, या इन पर अपने को बलिदान ही कर दूंगा। जब तीन दिन सेंक-बाँध करने पर भी रोगियों की हालत न सॅभली, तो पण्डितजी को बढ़ी चिन्ता हुई । शहर वहीं से वीस मील पर था। रेल का कहीं पता नहीं, रास्ता बीहड और साथी कोई नहीं। इधर यह भय कि अकेले रोगियों की न-जाने क्या दशा हो । बेचारे बड़े सकट मे पड़े। अन्त को चौथे दिन, पहर रात रहे, वह अकेले ही शहर को चल दिये और दस बजते-बजते वहाँ जा पहुँचे । अस्पताल से दवा लेने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा। गॅवारों से अस्पतालवाले दवाओं का मन- माना दाम वसूल किया करते थे। पण्डितजी को मुक्त क्यो देने लगे । डाक्टर के मुशी ने कहा-दवा तैयार नहीं है। पण्डितजी ने गिड़गिड़ाकर कहा- सरकार, बड़ी दूर से आया हूँ। कई आदमी बीमार पड़े हैं। दवा न मिलेगी, तो सब मर जायेंगे । मु शी ने बिगड़कर कहा - क्यो सिर खाये जाते हो ? कह तो दिया, दवा तैयार नहीं है, और न इतनी जल्द तैयार हो सकती है। पण्डितजी अत्यन्त दीनभाव से बोले- सरकार, ब्राह्मण हूँ, आपके बाल-बच्चों को भगवान् चिरञ्जीवी करें, दया कीजिए । आपका अकवाल चमकता रहे । रिश्वती कर्मचारियो में दया कहाँ ? वे तो रुपये के गुलाम हैं। ज्यों-ज्यों पण्डितजी उसकी खुशामद करते थे, वह और भी मल्लाता था। अपने जीवन में पण्डित- जी ने कभी इतनी दीनता न प्रकट की थी। उनके पास इस वक्त एक धेला भी न था अगर वह जानते कि दवा मिलने में इतनी दिक्कत होगी, तो गाँववालों से ही कुछ मांग-जाँचकर लाये होते। बेचारे हतबुद्धि-से खड़े सोच रहे थे कि अब क्या करना चाहिए ? सहसा डाक्टर साहब स्वय बँगले से निकल आये । पण्डितजी लपककर उनके पैरों पर गिर पड़े और करुण-स्वर मे वोले-दीनबधु, मेरे घर के तीन आदमी ताऊन मे पड़े हुए हैं । बड़ा गरीब हूँ सरकार, कोई दवा मिले । डाक्टर साहब के पास ऐसे गरीव लोग नित्य आया करते थे। उनके चरणों पर किसी का गिर पड़ना, उनके सामने पड़े हुए आर्तनाद करना, उनके लिए कुछ नई बातें न थीं; अगर इस तरह वह दया करने लगते तो दया ही भर को होते यह १
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