मन्त्र ४९ > पर ठाट-बाट कहाँ से निभता 2 मगर दिल के चाहे कितने ही बुरे हों, बातें मीठी-मीठी करते थे , पैर हटाकर बोले-रोगी कहाँ है ? पण्डितजी-सरकार, वे तो घर पर हैं। इतनी दूर कैसे लाता ? डाक्टर-रोगी घर, और तुम दवा लेने आया है। कितना मजे का बात है। रोगी को देखे बिना कैसे दवा दे सकता है ? पण्डितजी को अपनी भूल मालूम हुई। वास्तव में विना रोगी को देखे रोग की 'पहचान कैसे हो सकती है, लेकिन तीन-तीन रोगियों को इतनी दूर लाना आसान न था। अगर गांववाले उनकी सहायता करते, तो डोलियों का प्रबन्ध हो सकता था वहाँ तो सब-कुछ अपने ही बूते पर करना था, गाँववालों से इसमें सहायता मिलने की कोई आशा न थी। सहायता को कौन कहे, वे तो उनके शत्रु हो रहे थे। उन्हे भय होता था कि यह दुष्ट देवताओं से बैर बढाकर हम लोगों पर न जाने क्या विपत्ति लायेगा; अगर कोई दूसरा आदमी होता, तो वह उसे कबका मार चुके होते। पण्डितजी से उन्हें प्रेम हो गया था , इसी लिए छोड़ दिया था। यह जवाब सुनकर पण्डितजी को कुछ बोलने का साहस तो न होता था पर कलेजा मजबूत करके वोले—सरकार, अव कुछ नहीं हो सकता ? डाक्टर अस्पताल से दवा नहीं मिल सकता। हम अपने पास से, दाम लेकर दवा दे सकता है। पण्डितजी--यह दवा कितने की होगी सरकार ? डाक्टर साहब ने दवा का दाम १०) बतलाया, और यह भी कहा कि इस दवा से जितना लाभ होगा, उतना अस्पताल को दवा से नहीं हो सकता । बोले- वहाँ पुराना दवाई रखा रहता है। गरीब लोग आता है, दवाई ले जाता है , जिसको जीना होता है, जीता है, जिसे मरना होता है, मरता है; हमसे कुछ मतलब नहीं। हम तुमको जो दवा देगा, वह सच्चा दवा होगा। दस रुपये !-इस समय पण्डितजी को दस रुपये दस लाख जान पड़े। इतने रुपये वह एक दिन में भंग-बूटी में उड़ा दिया करते थे, पर इस समय तो धेले. धेले को मुहताज थे। किसी से उधार मिलने की आशा कहाँ । हाँ, सभव है। भिक्षा माँगने से कुछ मिल जाय , लेकिन इतनी जल्द दस रुपये किसी भी उपाय से न मिल सकते थे। आध घण्टे तक वह इसी उधेड़-बुन में खड़े रहे। भिक्षा 2 ४
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