पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/६३

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कामना तरु ५९ दर्शन करके जीवन का उसी नदी के तट पर अन्त कर दें। वही नदी का किनारा, वही वृक्षों का कुज, वही चन्दा का छोटा-सा सुन्दर घर, उसकी आँखों में फिरा करता, और वह पौधा जिसे उन दोनों ने मिलकर सींचा था, उसमें तो मानो उसके प्राण ही वसते थे। क्या वह दिन भी आयेगा, जव वह उस पौधे को हरी-हरी पत्तियों से लदा हुआ देखेगा ! कौन जाने वह अब है भी या सूख गया ? कौन अब उसको सींचता होगा। चन्दा इतने दिनों अविवाहिता थोड़े ही बैठी होगी। ऐसा सभव भी तो नहीं । उसे अब मेरी सुधि भी न होगी । हाँ, शायद कभी अपने घर की याद खींच लाती हो, तो पौवे को देखकर उसे मेरी याद आ जाती हो। मुझ जैसे अभागे के लिए इससे अधिक वह और कर ही क्या सकती है। उस भूमि को एक बार देखने के लिए वह अपना जीवन दे सकता था , पर यह अभिलाषा न पूरी होती थी। आह ! एक युग बीत गया, शोक और नैराश्य ने उठती जवानी को कुचल दिया। न आँखों मे ज्योति रही, न पैरों में शक्ति । जीवन क्या था, एक द खदायी स्वप्न था। उस सघन अन्वकार में उसे कुछ न सूझता था, बस जीवन का आधार एक अभिलाषा थी, एक सुखद स्वप्न, जो जीवन में न जाने कब उसने देखा था। एक बार फिर वही स्वप्न देखना चाहता था। फिर, उसकी अभिलाषाओं का अन्त हो जायगा, उसे कोई इच्छा न रहेगी। सारा अनन्त भविष्य, सारी अनन्त चिन्ताएँ, इसी एक स्वप्न में लीन हो जाती थीं। उसके रक्षकों को अव उसकी ओर से कोई शका न थी। उन्हे उस पर दया आती थी । रात को पहरे पर केवल कोई एक आदमी रह जाता था और लोग मीठी नींद सोते थे। कुँअर भाग जा सकता है, इसकी कोई सम्भावना, कोई शका न थी। यहाँ तक कि एक दिन यह सिपाही भी निश्शक होकर बन्दूक लिये लेट रहा। निद्रा किसी हिंसक पशु की भांति ताक लगाये बैठी थी। लेटते ही टूट पड़ी। कुँअर ने सिपाही की नाक की आवाज़ सुनी । उनका हृदय बड़े वेग से उछलने लगा। यह अवसर आज कितने दिनों के बाद मिला था। वह उठे , मगर पाँव था-थर कॉप रहे थे। वरामदे के नीचे उतरने का साहस न हो सका। कहीं इसकी नींद खुल गई तो? हिंसा उनकी सहायता कर सकती थी। सिपाही की वगल में उसकी तलवार पड़ी थी , पर प्रेम को हिंसा से वैर है। कुँअर ने सिपाही को जगा दिया,