पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/६६

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मानसरोवर 1 वह चौंककर उठ बैठा। रहा-सहा संशय भी उसके दिल से निकल गया। दूसरी मार जो सोया, तो खर्राटे लेने लगा। प्रातःकाल जब उसकी निद्रा टूटी, तो उसने लपककर कुभर के कमरे में । कुँअर का पता न था। कुअर इस समय हवा के घोड़ों पर सवार, कल्पना की द्रुतगति से, भागाका रहा था उस स्थान को, जहाँ उसने सुख-स्वप्न देखा था। किले में चारों ओर तलाश हुई, नायक ने सवार दौड़ाये पर कहा पता न च्य। पहाड़ी रास्तों का काटना कठिन, उस पर अज्ञातवास को कैद, मृत्यु के दूत पौडे लगे हुए, जिनसे बचना मुशकिल । कुँअर को कामना-तीर्थ में महीनों लग गरे । उर यात्रा पूरी हुई, कुँअर में एक कामना के सिवा और कुछ शेप न था। दिनमा की कठिन यात्रा के बाद जब वह उस स्थान पर पहुंचे, तो संध्या हो गई थी। यहाँ बस्ती का नाम भी न था । दो-चार टे-फूटे झोपड़े उस वस्ती के चित्र स्वाप शेष रह गये थे। वह झोपड़ा, जिसमें कभी प्रेम का प्रकाश था, जिसके नीचे टन्होंने जीवन के सुखमय दिन काटे थे, जो उनकी कामनाओं का आगार और उपासना का मन्दिर था, अव उनकी अभिलाषाओं की भांति भन्न हो गया था। झोपड़े की भमावस्या मूरू भाषा में अपनी करुण-कथा सुना रही थी। कुँअर उसे देखते हो 'पन्दानन्दा!' पुकारते हुए दौड़े। उन्होंने उस रज को माथे पर मला, मानो किसी देवता की विभूति हो, और उसको टूटी हुई दीवारों से चिमटकर बड़ी देर तक रोते रहे। हारे 'अभिलाषा ! वह रोने ही के लिए इतनी दूर से आये थे? रोने हो की चभिरा इतने दिनों से उन्हें विकल कर रही थी ? पर इस रुदन में कितना स्वर्गीय आनन्द था। क्या समस्त संसार का सुख इन आँसुओं की तुलना कर सकता था ? तब वह झोपड़े से निकले ! सामने मैदान में एक वृक्ष इरे-हरे नी पर को गोद में लिये, मानो उनका स्वागत करने को खड़ा था। यह यही पौधा है, दिने आज से बीस वर्ष पहले दोनों ने आरोपित किया था। कुंभर उन्मत्त की भाति है। और जाकर उस वृक्ष से लिपट गये, मानो कोई पिता अपने मात्होर पुन से लगाये हुए हो। यह उसी प्रेम की निशानी है, उसी अक्षप प्रेम की, को हटाने दिनों के बाद आज इतना विशाल हो गया है। कुंभरदय इंग, न