कामना-तरु मानो इस वृक्ष को अपने अन्दर रख लेगा, जिसमें उसे हवा का झोंका भी न लगे। उसके एक-एक पल्लव पर चन्दा की स्मृति बैठी हुई थी। पक्षियों का इतना रम्य सगीत क्या कभी उन्होंने सुना था ! उनके हाथों में दम न था, सारी देह भूख-प्यास और थकन से शिथिल हो रही थी। पर, वह उस वृक्ष पर चढ़ गये, इतनी फुर्ती से चढ़े कि बन्दर भी न चढ़ता। सबसे ऊँची फुनगी पर बैठकर उन्होंने चारों ओर गर्व-पूर्ण दृष्टि डाली। यही उनकी कामनाओं का स्वर्ग था। सारा दृश्य चन्दामय हो रहा था। दूर की नीली पर्वत-श्रेणियों पर चन्दा बैठी गा रही थी। आकाश में तैरनेवाली लालिमामयी नौकाओं पर चन्दा ही उड़ी जाती थी। सूर्य को श्वेत-पीत प्रकाश की रेखाओं पर चन्दा ही वैठी हँस रही थी। कुअर के मन मे आया, पक्षी होता तो इन्हीं डालियों पर बैठा हुआ जीवन के दिन पूरे करता। जब अँधेरा हो गया, तो कुँअर नीचे उतरे और उसी वृक्ष के नीचे थोड़ी-सी भूमि भाकर पत्तियों की शय्या बनाई और लेटे। यही उनके जीवन का स्वर्ण-स्वप्न, था, आह ! यही वैराग्य ! अब वह इस वृक्ष की शरण छोड़कर कहीं न जायँगे । दिल्ली के तख्त के लिए भी वह इस आश्रम को न छोड़ेंगे। उसी स्निग्ध, अमल चाँदनी मे सहसा एक पक्षी आकर उस वृक्ष पर बैठा ओर दर्द में डूबे हुए स्वरों में गाने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो वह वृक्ष सिर धुन रहा है ! वह नीरव रात्रि उस वेदनामय सगीत से हिल उठी, कुँअर का हृदय इस तरह ऐंठने लगा, मानो वह फट जायगा। उस स्वर में करुणा और वियोग के तीर-से भरे हुए थे । आह ! पक्षी, तेरा जोड़ा भी अवश्य विछुड़ गया है, नहीं तेरे राग मे इतनी व्यथा, इतना विपाद, इतना रुदन कहाँ से आता ! कुँअर के हृदय के टुकड़े हुए जाते थे, एक-एक स्वर तीर की भाँति दिल को छेदे डालता था। वहां बैठे न रह सके। उठकर एक आत्म-विस्मृत की दशा में दौड़े हुए झोपड़े में गये, वहाँ से फिर वृक्ष के नीचे आये । उस पक्षी को कैसे पायें । कहीं दिखाई नहीं देता। पक्षी का गाना वन्द हुआ, तो कुँअर को नींद आ गई। उन्हे स्वप्न में ऐसा. जान पड़ा कि वही पक्षी उनके समीप आया। कुँअर ने ध्यान से देखा, तो वह पक्षी न था, चन्दा थी; हाँ, प्रत्यक्ष चन्दा थी। कुँअर ने पूछा-चन्दा, यह पक्षो यहाँ कहाँ ? 1
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