पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/६८

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मानसरोवर चन्दा ने कहा-मैं ही तो वह पक्षी हूँ। कुँअर-तुम पक्षी हो ! क्या तुम्हीं गा रही थी ? चन्दा–हाँ प्रियतम, मैं ही गा रही थी। इसी तरह रोते-रोते एक युग बीत गया। कुँअर-तुम्हारा घोसला कहाँ है ? चन्दा-उसी झोपड़े में, जहाँ तुम्हारी खाट थी। उसी खाट के वान से मैंने अपना घोंसला बनाया है। कुँअर-और तुम्हारा जोड़ा कहाँ है चन्दा-मैं अकेली हूँ। चन्दा को अपने प्रियतम के स्मरण करने में, उसके लिए रोने में, जो सुख है, वह जोड़े में नहीं ; मैं इसी तरह अकेली रहूँगी और -अकेली मरूँगी। कुँअर-मैं क्या पक्षी नहीं हो सकता ? चन्दा चली गई। कुँअर की नींद खुल गई। ऊषा की लालिमा आकाश पर छाई हुई थी और वह चिड़िया कुंअर की शय्या के समीप एक डाल पर बैठी चहक रही थी। अब उस संगीत में करुणा न थी, विलाप न था, उसमें आनन्द था, चापल्य था, सारल्य था, वह वियोग का करुण-क्रन्दन नहीं, मिलन का मधुर सगीत था। कुँअर सोचने लगे- इस खप्न का क्या रहस्य है ? (७) कुँअर ने शय्या से उठते ही एक झाडू बनाई और झोपड़े को साफ करने लगे। उनके जीते-जी इसकी यह भन्न दशा नहीं रह सकती। वह इसकी दीवारें उठायेंगे, इस पर छप्पर डालेंगे, इसे लीपेंगे। इसमें उनको चन्दा की स्मृति वास करती है। झोपड़े के एक कोने में वह कांवर रखी हुई थी, जिस पर पानी ला-लाकर वह इस वृक्ष को सींचते थे। उन्होंने कांवर उठा ली और पानी लाने चले। दो दिन से कुछ भोजन न किया था। रात को भूख लगी हुई थी ; पर इस समय भोजन की विलकुल इच्छा न थी। देह में एक अद्भुत स्फूर्ति का अनुभव होता था । . • उन्होंने नदी से पानी ला-लाकर मिट्टी भिगोना शुरू किया। दौड़े जाते थे और दोड़े आते थे। इतनी शक्ति उनमें कभी न थी। एक ही दिन में इतनी दीवार उठ गई, जितनी चार मज़दूर भी न - उठा सकते 1