पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/८

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मानसरोवर बोले-तो क्या भीतर चली आयेगी ? हो तो चुकी पूजा । यहाँ आकर भरभष्ट करेगी? एक भक्तजन ने कहा - ठाकुरजी को पवित्र करने आई है। सुखिया ने बड़ी दीनता से कहा-ठाकुरजी के चरन छूने आई हूं, सरकार ! पूजा की सब सामग्री लाई हूँ। पुजारी-कैसी बेसमझी की बात करती है रे, कुछ पगली तो नहीं हो गई है। भला, तू ठाकुरजी को कैसे छुयेगी ? सुखिया को अब तक कभी ठाकुरद्वारे में आने का अवसर न मिला था। आश्चर्य से बोली-सरकार, वह तो संसार के मालिक हैं । उनके दरसन से तो पापी भी तर जाता है, मेरे छूने से उन्हें कैसे छूत लग जायगी ! पुजारी-अरे, तू चमारिन है कि नहीं रे ? सुखिया -तो क्या भगवान् ने चमारों को नहीं सिरजा है ? चमारों का भगवान् कोई और है ? इस बच्चे की मनौती है, सरकार ! इस पर वही भक्त महोदय, जो अब स्तुति समाप्त कर चुके थे, डपटकर बोले—मार के भगा दो चुडैल को। भरभष्ट करने आई है, फेंक दो थाली-वाली । ससार में तो आप ही आग लगी हुई है, चमार भी ठाकुरजी की पूजा करने लगेंगे, तो पिरथी रहेगी कि रसातल को चली जायगौ ? दूसरे भक्त महाशय वोले-अव बेचारे ठाकुरजी को भी चमारों के हाथ का भोजन करना पड़ेगा । अब परलय होने मे कुछ कसर नहीं है। ठण्ड पड़ रही थी, सुखिया खड़ी काँप रही थी और यहाँ धर्म के ठेकेदार लोग समय की गति पर आलोचनाएँ कर रहे थे। वच्चा मारे ठण्ड के उसकी छाती में घुसा जाता था, किन्तु सुखिया वहाँ हटने का नाम न लेती थी। ऐसा मालूम होता था कि उसके दोनों पाँव भूमि में गड़ गये हैं । रह-रहकर उसके हृदय में ऐसा उद्- गार उठता था कि जाकर ठाकुरजी के चरणों पर गिर पड़े। ठाकुरजी क्या इन्हीं के हैं, हम गरीबों का उनसे कोई नाता नहीं है, ये लोग कौन होते हैं रोकनेवाले, पर यह भय होता था कि इन लोगों ने कहीं सचमुच थाली-वाली फेंक दी, तो क्या करूँगी ? दिल में ऐठकर रह जाती थी। सहसा उसे एक बात सूझी । वह वहाँ से कुछ दूर जाकर का वृक्ष के नीचे अँधेरे में छिपकर इन भक्तजनों के जाने की राह देखने लगी।