मन्दिर लिन पाठ ( ४ ) आरती और स्तुति के पश्चात् भक्तजन वढ़ी देर तक श्रीमद्भागवत करते रहे । उधर पुजारीजी ने चूल्हा जलाया और खाना पकाने लगे। चूल्हे के सामने बैठे हुए हूँ हूँ' करते जाते थे और बीच-बीच मे टिप्पणियाँ भी करते जाते थे। दस वजे रात तक कथा वार्ता होती रही और सुखिया वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था मे खड़ी रही। वारे भक्त लोगो ने एक-एक करके घर की राह ली । पुजारीजी अकेले रह गये। अब सुखिया आकर मन्दिर के बरामदे के सामने सड़ी हो गई, जहाँ पुजारीजी आसन जमाये वटलोई का क्षुधावर्धक मधुर सगीत सुनने में मग्न थे। पुजारीजी ने आहट पाकर गरदन उठाई, तो सुखिया को खड़ी देखा । चिढकर वोले-स्यों रे, तू अभी यहीं खड़ी है ? मुखिया ने थाली ज़मीन पर रख दी और एक हाय फैलाकर भिक्षा-प्रार्थना करती हुई बोली-महाराजजी, मैं बड़ी अभागिनी हूँ। यही वालक मेरे जीवन का अलम है, मुझ पर दया करो । तीन दिन से इसने सिर नहीं उठाया। तुम्हें बड़ा जस होगा, महाराजजी ! यह कहते-कहते सुखिया रोने लगी। पुजारीजो दयाल तो थे , पर चमारिन को ठाकुरजी के समीप जाने देने का अश्रुतपूर्व घोर पातक वह कैसे कर सकते थे ? न-जाने ठाकुरजी इसका क्या दण्ड दें। आखिर उनके भी तो वाल-वच्चे थे। कहीं ठाकुरजी कुपित होकर गांव का सर्वनाश कर दें, तो ! वोले-घर जाकर भगवान् का नाम ले, तेरा चालक अच्छा हो जायगा। मैं यह तुलसीटल देता हूँ, वच्चे को खिला दे, चरणा- मृत उसकी आँखों में लगा दे । भगवान् चाड्गे, तो सब अच्छा ही होगा। सुखिया-ठाकुरजी के चरणों पर गिरने न दोगे, महाराजजी ? बड़ी दुखिया हूँ, उधार काढकर पूजा की सामग्री जुटाई है। मैंने कल सपना देखा था महाराज, कि ठाकुरजी की पूजा कर, तेरा वालक अच्छा हो जायगा। तभी दौड़ी आई हूँ। मेरे पास एक रुपया है । वह मुझसे ले लो ; पर मुझे एक छन-भर ठाकुरजी के चरनों पर गिर लेने दो। इस प्रलोभन ने पण्डितजी को एक क्षण के लिए विचलित कर दिया ; किन्तु मूर्खता के कारण ईश्वर का भय उनके मन में कुछ-कुछ बाकी था। सँभलकर बोले-
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