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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/८०

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ge मानसरोवर , चिन्ता सिर पकड़कर भूमि पर बैठ गई। सैनिक ने फिर कहा-मरहठे समीप आ पहुंचे। 'समीप आ पहुँचे !! 'बहुत समीप । 'तो तुरत चिता तैयार करो । समय नहीं है।' 'अभी हम लोग तो सिर कटाने को हाज़िर ही हैं।' 'तुम्हारी जैसी इच्छा । मेरे कर्तव्य का तो यहीं अन्त है।' 'किला बन्द करके हम महीनों लड़ सकते हैं।' 'तो आकर लड़ो। मेरी लड़ाई अब किसी से नहीं।' एक ओर अन्धकार प्रकाश को पैरों-तले कुचलता चला आता था, दूसरी ओर विजयी मरहठे लहराते हुए खेतों को ; और किले में चिता वन रही थी । ज्योंही दीपक जले, चिता में भी आग लगो । सती चिन्ता, सोलहों शृङ्गार किये, अनुपम छवि दिखाती हुई, प्रसन्न-मुख अग्नि-मार्ग से पतिलोक की यात्रा करने जा रही थी। ८) चिता के चारों ओर स्त्री और पुरुष जमा थे। शत्रुओं ने किले को घेर लिया है, इसकी किसी को फिक्र न थी। शोक और संताप से सबके चेहरे उदास और सिर झुके हुए थे। अभी कल इसी आँगन में विवाह का मडप सजाया गया था। जहाँ इस समय चिता सुलग रही है, वहीं कल हवनकुण्ड था। कल भी इसी भाँति अग्नि की लपटें उठ रही थीं, इसी भाँति लोग जमा थे; पर आज और कल के दृश्यों में कितना अन्तर है ! हाँ, स्थूल नेत्रों के लिए अन्तर हो सकता है ; पर वास्तव में यह उसी यज्ञ की पूर्णाहुति है, उसी प्रतिज्ञा का पालन है। सहसा घोड़े की टापों की आवाजें सुनाई देने लगीं। मालूम होता था, कोई सिपाही घोड़े को सरपट भगाता चला आ रहा है। एक क्षण में टापों की आवाज़ चन्द हो गई, और एक सैनिक आँगन में दौड़ा हुआ आ पहुंचा। लोगों ने चकित होकर देखा, यह रत्नसिह था ! रत्नसिह चिता के पास जाकर हॉफता हुआ बोला-प्रिये, मैं तो अभी जीवित हूँ, यह तुमने क्या कर डाला ! चिता में आग लग चुकी थी । चिन्ता की साड़ी से अग्नि की ज्वाला निकल रही