पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/८६

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८२ मानसरोवर -- तमाशा देख रहा था, लपक पड़ा और जामिद पर चारों तरफ से चोटें पड़ने लगीं। जामिद की समझ में न आता था कि लोग मुझे क्यों मार रहे हैं। कोई कुछ नहीं पूछता। तिलकधारी जवान को कोई कुछ नहीं कहता। वस, जो आता है, मुझी पर हाथ साफ करता है। आखिर वह बेदम होकर गिर पड़ा। तब लोगों में बाते होने लगीं। 'दगा दे गया । 'धत् तेरी ज़ात की ! कभी म्लेच्छो से भलाई की आगा न रखनी चाहिए कौआ कौओं ही के साथ मिलेगा। कमीना जब करेगा, कमीनापन । इसे कोई पूछता न था, मन्दिर में झाडू लगा रहा था। देह पर कपड़े का तार भी न था, हमने इसका सम्मान किया, पशु से आदमी बना दिया, फिर भी अपना न हुआ !' 'इनके धर्म का तो मूल ही यही है।' जामिद रात-भर सड़क के किनारे पड़ा दर्द से कराहता रहा, उसे मार खाने का दुःख न था। ऐसी यातनाएँ वह कितनी वार भोग चुका था। उसे दु ख और आश्चर्य केवल इस बात का था कि इन लोगों ने क्यों एक दिन मेरा इतना सम्मान किया, और क्यों आज अकारण ही मेरी इतनी दुर्गति की ? इनकी वह सज्जनता आज कहाँ गई ? मैं तो वही हूँ। मैंने कोई कुसूर भी नहीं किया । मैंने तो वही किया, जो ऐसी दशा में सभी को करना चाहिए। फिर इन लोगों ने मुझ पर इतना अत्याचार किया 2 देवता क्यों राक्षस बन गये ? वह रात भर इसी उलझन में पढ़ा रहा। प्रान काल उठकर एक तरफ की राह ली। ( ४ ) जामिद अभी थोड़ी ही दूर गया था कि वही बुड्ढा उसे मिला। उसे देखते ही वह बोला - कसम खुदा की, तुमने कल मेरी जान बचा दी । सुना, जालिमों ने तुम्हें बुरी तरह पीटा । मैं तो मौका पाते ही निकल भागा । अब तक कहाँ थे ? यहाँ लोग रात ही से तुमसे मिलने के लिए बेकरार हो रहे हैं। क़ाज़ी, साहव रात ही से तुम्हारी तलाश में निकले थे, मगर तुम न मिले। कल हम दोनों, अकेले पड़ गये थे। दुश्मनों ने हमें पीट लिया । नमाज़ का वक्त था, यहाँ सब लोग मसजिद में थे , अगर ज़रा भी खबर हो जाती, तो एक हजार लठैत पहुँच जाते । तव आटे-दाल का