हिंसा परमो धर्म. ८३ . भाव मालूम होता। कसम खुदा की, आज से मैंने तीन कोरी मुर्गियां पाली हैं ! देखू, पण्डितजी महाराज अब क्या करते हैं। क़सम खुदा की, काजी साहब ने कहा है, अगर वह लौंडा ज़रा भी आँख दिखाये, तो तुम आकर मुझसे कहना । या तो बचा घर छोड़कर भागेंगे, या हड्डी-पसली तोड़कर रख दी जायगी। जामिद को लिये वह बुड्ढा क़ाज़ी जोरावरहुसैन के दरवाजे पर पहुँचा। काज़ी साहब वज़ कर रहे थे। जामिद को देखते ही दौड़कर गले लगा लिया और वोले- वल्लाह ! तुम्हें आँखें ढूंढ़ रही थीं। तुमने अकेले इतने काफिरों के दांत खट्टे कर दिये । क्यों न हो, मोमिन का खून है ! काफिरों की हकीकत क्या । सुना, सब-के- सव तुम्हारी शुद्धि करने जा रहे थे मगर तुमने उनके सारे मनसूबे पलट दिये। इस्लाम को ऐसे ही खादिमों की ज़रूरत है। तुम-जैसे दीनदारों से इस्लाम का नाम रोशन है। गलती यही हुई कि तुमने एक महीने भर तक सब नहीं किया। शादी हो जाने देते, तब मज़ा आता। एक नाज़नीन साथ लाते, और दौलत मुफ्त । वल्लाह ! तुमने उजलत कर दी। दिन-भर भक्तों का तांता लगा रहा। जामिद को एक नज़र देखने का सवको शौक या। सभी उसकी हिम्मत, ज़ोर और मज़वी जोग की प्रशसा करते थे। ( ५ ) पहर रात बीत चुकी थी। मुसाफिरों की आमदरफ्त कम हो चली थी। जामिद ने काजी साहब से वर्म-ग्रन्थ पढना शुरू किया था। उन्होंने उसके लिए अपने बगल का कमरा खाली कर दिया था। वह काजी साहब से सबक लेकर आया, और सोने जा रहा था कि सहसा उसे दरवाजे पर एक तांगे के रुकने की आवाज़ सुनाई दी। क़ाज़ी साहब के मुरीद अक्सर आया करते थे। जामिद ने साचा, कोई मुरीद आया होगा। नीचे आया, तो देखा --एक स्त्री तांगे से उतरकर वरामदे मे खड़ी है, और तांगेवाला उसका असवाव उतार रहा है। महिला ने मकान को इवर-उवर देखकर कहा नहीं जी, मुझे अच्छी तरह खयाल है, यह उनका मकान नहीं है। शायद तुम भूल गये हो । तांगेवाला-हुजूर तो मानती ही नहीं। कह दिया कि वावू साहव ने मकान तबदील कर दिया है। ऊपर चलिए । स्री ने कुछ झिमकते हुए कहा-जुलाते क्यों नही ? आवाज़ दो !
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