पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बहिष्कार ९१ पहले ही छोड़ दिया है, वह जहाँ चाहे जा सकती है , पर वह अपने प्राणाधार और प्यारे बच्चे को छोड़कर कहाँ जायगी ? लेकिन कालिन्दी से वह क्या कहेगी ? जिसके साथ इतने दिनों तक बहनों की तरह रही, उसे क्या वह अपने घर से निकाल देगी ? उसका बच्चा कालिन्दी से कितना हिला हुआ या, कालिन्दी उसे कितना चाहती थी। क्या उस परित्यक्ता दीना को वह अपने घर से निकाल देगी ? इसके सिवा और उपाय ही क्या था ? उसका जीवन अब एक स्वार्थी, दम्भी व्यक्ति की दया पर अवलम्बित था। क्या अपने पति के प्रेम पर वह भरोसा कर सकती थी ? ज्ञानचन्द्र सहृदय थे, उदार थे, विचारशील थे, दृढ थे , पर क्या उनका प्रेम अपमान, व्यग्य और बहिष्कार-जैसे आघातो को सहन कर सकता या ? उसी दिन से गोविन्दी और कालिन्दी में कुछ पार्थक्या-सा दिखाई देने लगा। दोनों अव बहुत कम साथ बैठतीं । कालिन्दी पुकारती-- वहन, आकर खाना खा लो। गोविन्दी कहती- तुम खा लो, मैं फिर सा लूंगी। पहले कालिन्दी बालक को सारे दिन खिलाया करती थी, मा के पास केवल दूध पीने जाता था। मगर अब गोविन्दी हरदम उसे अपने ही पास रखती है । दोनो के बीच में कोई दीवार खड़ी हो गई है। कालिन्दी वारदार सोचती है, आजकल मुझसे यह क्यो स्ठी हुई हैं। पर उसे कोई कारण नहीं दिखाई देता । उसे भय हो रहा है कि कदाचित् यह अब मुझे यहां नहीं रखना चाहतीं । इसी चिन्ता में वह गोते खाया करती है , किन्तु गोविन्दी भी उससे कम चिन्तित नहीं है। कालिन्दी से वह स्नेह तोदना चाहती है, पर उसकी म्लान मूर्ति देखकर उसके हृदय के टुकड़े हो जाते हैं। उससे कुछ कह नहीं सकती। अवहेलना के शब्द मुँह से नहीं निकलते। कदाचित् उसे घर से जाते देखकर वह रो पड़ेगी और उसे जबरदस्ती रोक लेगी। इसी हैस-बैस में तीन दिन गुज़र गये । कालिन्दी घर से न निकली। तीसरे दिन सध्या समय सोमदत्त नदी के तट पर बढ़ी देर तक खड़ा रहा । अन्त को चारो और अँधेरा छा गया। फिर भी पोळे फिर-फिरकर जल- तट की ओर देखता जाता पा! रात के टस बज गये हैं। अभी ज्ञानचन्द्र घर नहीं आये। गोविन्दी घबरा रही