बहिष्कार . डींगे मारा करता था, वही आज इसका इतनी निर्दयता से वहिष्कार करता हुआ जान पड़ता था, इस पर उसे लेशमात्र भी दुख, क्रोध या द्वेष न था। उसके मन को केवल एक ही भावना आन्दोलित कर रही थी। वह अब इस घर मे कैसे रह सकती है। अब तक वह इस घर की स्वामिनी थी, इसीलिए न कि वह अपने पति के प्रेम की स्वामिनी थी, पर अब वह उस प्रेम से वञ्चित हो गई थी। अव इस घर पर उसका क्या अधिकार था। वह अब अपने पति को मुँह ही कैसे दिखा सकती थी। वह जानती थी, ज्ञानचन्द्र अपने मुंह से उसके विरुद्ध एक शब्द भी न निकालेंगे पर उसके विषय मे ऐसी बातें जानकर क्या वह उससे प्रेम कर सकते थे ? कदापि नहीं, इस वक्त न-जाने क्या समझकर चुप रहे । सबेरे तूफान उठेगा। कितने हो विचारशील हो, पर अपने समाज से निकाला जाना कौन पसन्द करेगा। स्त्रियों की ससार में कमी नहीं । मेरी जगह हज़ारो मिल जायेंगी। मेरी किसी को क्या परवा । अव यहां रहना वेहयाई है। आखिर कोई लाठी मारकर थोड़े ही निकाल देगा। हयादार के लिए आँख का इशारा बहुत है। मुँह से न कहें, मन की बात और भाव छिपे नहीं रहते , लेकिन मीठी निद्रा की गोद में सोये हुए शिशु को देखकर ममता ने उसके अशक्त हृदय को और भी कातर कर दिया। इस अपने प्राणो के आधार को वह कैसे छोड़ेगी। शिशु को उसने गोद मे उठा लिया और खड़ी रोती रही। तीन साल कितने आनन्द से गुज़रे । उसने समझा था इसी भौति सारा जीवन कट जायगा , लेकिन उसके भाग्य में इससे अधिक सुख भोगना लिखा ही न था। करुण वेदना में डूबे हुए ये शब्द उसके मुख से निकल आये-भगवन् ! अगर तुम्हे इस भौति मेरी दुर्गति करनी थी, तो तीन साल पहले क्या न की ? उस वक्त यदि तुमने मेरे जीवन का अन्त कर दिया होता, तो मैं तुम्हे धन्यवाद देती। तीन साल तक सौभाग्य के सुरम्य उद्यान में सौरभ, समीर और माधुर्य का आनन्द उठाने के बाद इस उद्यान ही को उजाड़ दिया। हा ! जिन पौधो को उसने अपने प्रेम-जल से सींचा था, वे अब निर्मम दुर्भाग्य के पैरों तले कितनी निष्ठुरता से कुचले जा रहे थे। ज्ञानचन्द्र के शील और स्नेह का स्मरण आया, तो वह रो पड़ी। मृदु स्मृतियाँ आ-आकर हृदय को मसोसने लगीं। सहसा ज्ञानचन्द्र के आने से वह रॉभल बैठी। कठोर-से-कठोर यातें सुनने
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