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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/९८

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९४ मानसरोवर लिए उसने अपने हृदय को कड़ा कर लिया , किन्तु ज्ञानचन्द्र के मुख पर रोप का चिह भी न था । उन्होंने आश्चर्य से पूछा-क्या तुम अभी तक सोई नहीं ? जानती हो के वजे हैं, बारह से ऊपर हैं। गोविन्दी ने सहमते हुए कहा- तुम भी तो अभी नहीं सोये । ज्ञान० -मैं न सोऊँ, तो तुम भी न सोओ ? मैं न खाऊँ, तो तुम भी न खाओ ? मैं बीमार पड़े , तो तुम भी बीमार पड़ो ? यह क्यों ? मैं तो एक जन्म- 'पत्री बना रहा था। कल देनी होगी । तुम क्या करती रहीं, बोलो ? इन शब्दो मे कितना सरल स्नेह था ! क्या तिरस्कार के भाव इतने ललित शब्दों में प्रकट हो सकते हैं। प्रवञ्चकता क्या इतनी निर्मल हो सकती है ? शायद सोमदत्त ने अभी वज्र का प्रहार नहीं किया। अवकाश न मिला होगा, लेकिन ऐसा है, तो आज घर इतनी देर में क्यों आये ? भोजन क्यो न किया, मुझसे बोले तक नहीं, आँखें लाल हो रही थीं। मेरो ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं। क्या यह सम्भव है कि इनका क्रोध शान्त हो गया हो ? यह सम्भावना की चरमसीमा से भी बाहर है। तो क्या सोमदत्त को मुझ पर दया आ गई, पत्थर पर दूब जमी! गोविन्दी कुछ निश्चय न कर सको, और जिस भौति गृह-सुख-विहीन पथिक वृक्ष को छांह में भी आनन्द से पाँव फैलाकर सोता है, उसकी अव्यवस्था ही उसे निश्चिन्त बना देती है, उसी भाँति गोविन्दो मानसिक व्यग्रता मे भी स्वस्थ हो गई। मुस्कुरा- कर स्नेह-मृदुल स्वर मे बोली-तुम्हारी राह तो देख रही थी। यह कहते-कहते गोविन्दी का गला भर आया। व्याध के जाल में फड़फड़ाती हुई चिड़िया क्या मीठे राग गा सकती है ? ज्ञानचन्द्र ने चारपाई पर बैठकर कहा- झूठी बात, रोज़ तो तुम अब तक सो जाया करती थीं। . एक सप्ताह बीत गया पर ज्ञानचन्द्र ने गोविन्दी से कुछ न पूछा, और न उनके बर्ताव ही से उनके मनोगत भावों का कुछ परिचय मिला । अगर उनके व्यवहारो में कोई नवीनता थी, तो यह कि वह पहले से भी ज्यादा स्नेहशील, निर्द्वन्द्व और प्रफुल्ल- वदन हो गये। गोविन्दी का इतना आदर और मान उन्होंने कभी नहीं किया था। उनके प्रयत्नशील रहने पर भी गोविन्दी उनके मनोभावों को ताड़ रही थी और उसका चित्त प्रतिक्षण, शंका से चञ्चल और क्षुब्ध रहता था। अब उसे इसमे लेशमात्र भी