पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१००

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मृत्यु के पीछे

मैं ही रह जाऊँगा? मानकी ने उनकी यह बातें सुनी तो खूब दिल के फफोले फोड़े-'मैं तो जानती थी कि यह धुन तुम्हें मटियामेट कर देगी। इसीलिए वार-बार रोकती ; लेकिन तुमने मेरी एक न सुनी। आप तो इवे ही, मुझे भी ले हुवे ।' उनके पूज्य पिता भी बिगड़े, हितैपियों ने भी समझाया-अभी इस काम को कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दो, कानून में उत्तीर्ण होकर निर्द्वन्द्व देशोद्धार में प्रवृत्त हो जाना ।' लेकिन ईश्वरचन्द एक बार मैदान में पाकर भागना निन्द्य समझते थे । हों, उन्होंने दृढ़ प्रतिज्ञा की कि दूसरे साल परीक्षा के लिए तन-मन से तैयारी करूँगा । अतएव नये वर्ष के पदार्पण करते ही उन्होंने कानून को पुस्तक संग्रह कों, पाठ्यक्रम निश्चित किया, रोजनामचा लिखने लगे और अपने चंचल और बहानेबाज़ चित्त को चारों ओर से जकड़ा; मगर चटपटे पदार्थों का प्रास्वादन करने के बाद सरल भोजन कब रुचिकर होता है ! कानून में वे बातें कहाँ, वह उन्माद कहाँ, वे चोटें कहाँ, वह उत्तेजना कहाँ, वह हलचल कहाँ ! बाबू साहब अब नित्य एक खोई हुई दशा में रहते । जब तक अपने इच्छानुक्ल काम करते थे, चौवीस घण्टों में घण्टे-दो-घण्टे कानून भी देख लिया करते थे। इस नशे ने मानसिक शक्तियों को शिथिल कर दिया। लायु निर्जीव हो गये। उन्हें जात होने लगा कि अब मैं कानून के लायक नहीं रहा और इस जान ने कानून के प्रति उदासीनता का रूप धारण किया । मन में सन्तोपवृत्ति का प्रादुर्भाव हुआ। प्रारब्ध और पूर्व सस्कार के सिद्धान्तों की शरण लेने लगे। एक दिन मानकी ने कहा- यह क्या बात है ? क्या कानून से फिर जी का उचाट हुआ ? ईश्वरचन्द्र ने दुस्साहसपूर्ण भाव मे उत्तर दिया-हाँ मई, मेरा जी उससे भागता है मानकी ने व्यंग्य से कहा-बहुत कठिन है ! ईश्वरचन्द्र--कठिन नहीं है, और कठिन भी होता तो मैं उससे डरनेवाला न था; लेकिन मुझे वकालत का पेशा ही पतित प्रतीत होता है। ज्यों ज्यो वकीलों को प्रातरिक दशा का शान होता है, मुझे उस पेशे से घृणा होती जाती है। इसी शहर में सैकड़ों वकील और वैरिस्टर पड़े हुए हैं, लेकिन एक व्यक्ति ।