११६ मानसरोवर पाकर डरी कि पति महाशय कहीं इस झझट में फंसकर कानून से मुँह न मोड़ लें । लेकिन जब बाबू साहब ने श्राश्वासन दिया कि यह कार्य उनके कानून के अभ्यास में बाधक न होगा, तो कुछ न बोली । लेकिन ईश्वरचन्द्र को बहुत जल्द मालूम हो गया कि पत्रसम्पादन एक बहुत ही ईर्ष्यायुक्त कार्य है, जो चित्त की समग्र वृत्तियों का अपहरण कर लेता है। उन्होंने इसे मनोरंजन का एक साधन और ख्यातिलाभ का एक यन्त्र समझा था। उसके द्वारा जाति की कुछ सेवा करना चाहते थे। उससे द्रव्यो- पार्जन का विचार तक न किया था। लेकिन नौका में बैठकर उन्हें अनुभव हुआ कि यात्रा उतनी सुखद नहीं है जितनी समझी थी । लेखों के सशोधन, परिवर्धन और परिवर्तन, लेखकगण से पत्र-व्यवहार और चित्ताकर्षक विषयों की खोज और सहयोगियों से आगे बढ़ जाने की चिन्ता में उन्हें कानून का अध्ययन करने का अवकाश ही न मिलता था। सुबह को किताबें खोलकर बैठते कि १०० पृष्ठ समाप्त किये बिना कदापि न उलूंगा, किन्तु ज्योंही डाक का पुलिन्दा अा जाता, वे अधीर होकर उस पर टूट पड़ते, किताब खुली की खुली रह जाती थी। बार-बार सकल्प करते कि अब नियमित रूप से पुस्तका- वलोकन करूँगा और एक निर्दिष्ट समय से अधिक सम्पादकार्य में न लगाऊँगा। लेकिन पत्रिकाओं का बडल सामने आते ही दिल काबू के बाहर हो जाता। पत्रो की नोंक-झोंक, पत्रिकाओं के तर्क-वितर्क, आलोचना-प्रत्या लोचना, कवियों के काव्यचमत्कार, लेखकों का रचनाकौशल इत्यादि सभी बातें उनपर जादू का काम करतीं। इस पर छपाई की कठिनाइयों, ग्राहकसंख्या बढ़ाने की चिन्ता और पत्रिका को सर्वाङ्ग सुन्दर बनाने का आकाक्षा और भी प्राणों को सकट में डाले रहती थी। कभी-कभी उन्हें खेद होता कि व्यर्थ ही इस झमेले में पड़ा । यहाँ तक कि परीक्षा के दिन सिर पर आ गये और वे इसके लिए बिलकुल तैयार न थे। वे उसमें सम्मिलित न हुए। मन को समझाया कि अभी इस काम का श्रीगणेश है, इसी कारण यह सब बाधाएँ उपस्थित होती है। अगले वर्ष यह काम एक सुव्यवस्थित रूप में आ जायगा और तब मैं निश्चिन्त होकर परीक्षा में बैलूंगा। पास कर लेना क्या कठिन है । ऐसे बुद्धू पास हो जाते हैं जो एक सीधा-सा लेख भी नहीं लिख सकते, तो क्या
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